गैरेज

यह कहानीकार की नवीनतम कहानियों में से एक है जो ओडिया की मशहूर पत्रिका 'कादम्बिनी' में प्रकाशित हुई थी और अब तक कहानीकार के किसी भी कहानी-संग्रह में संकलित नहीं हुई है . इस कहानी में निम्न-मध्यम वर्ग के वातावरण में पनप रही 'लूम्पेन मानसिकता' का बखूबी कलात्मक चित्रण किया गया है जो पाठक को अभिभूत कर लेती है.

गैरेज



“कैसी हो तुम?”
“ठीक नहीं लग रहा है।” वह उदास मन से बोली। यद्यपि उसके होठों पर हँसी के भाव थे, मगर चेहरे पर घोर मायूसी छाई हुई थी । वह बिल्कुल भी सहज नहीं लग रही थी। उसे देखने से तो ऐसा लग रहा था मानो आकाश से कोई अनचाहा तारा टूटकर धरती पर गिर पड़ा हो।
“क्यों? क्या हो गया, जो ठीक नहीं लग रहा है ?”
“मुझसे बहुत बडी ग़लती हुई है। अब मैं नहीं भुगतूँगी, तो कौन भुगतेगा ?” उसकी आँखे लाल-लाल दिखाई दे रही थी जैसे कल रात वह बिल्कुल भी सोई नहीं हो।
“ग़लती?”
“हाँ।” वह सोफे पर अपनी अँगुलियों को थिरकाते हुए बोलने लगी, “मैं यहाँ रहूँगी।”
“मतलब?”
“मैं और कहीं नहीं जाऊँगी।”
तीशा मीरा की ओर देखने लगी। मीरा अपने आँचल में एक कमज़ोर निस्तेज बच्चे को चिपकाए हुए थी जो उसका बड़ा बेटा था। एक और छोटा बच्चा नीचे खड़े होकर “ऐ माँ, माँ !” पुकारते हुए उसकी साड़ी खींच रहा था। उन दोनों बच्चों को लेकर वह उसके घर में रहेगी ? तीशा को चुपचाप खड़ा देखकर, पता नहीं, मीरा ने क्या समझा । वह ख़ुद बोलने लगी, “मैं अपना सिर छुपाने के लिए आपके गैरेज में रह जाऊँगी ....”
“गैरेज में?”
“हाँ, आपकी कार के पास में।”
“क्या कह रही हो, गैरेज में कार के पास दो छोटे-छोटे बच्चों को लेकर रहोगी ?”
इससे पहले तीशा ने कई बार उसको कुछ नए काम आरम्भ करने के बारे में प्रस्ताव दे चुकी थी । “चलो, हम अपनी कार को एक शेड़ के नीचे रखवा देंगे तथा गैरेज में एक ब्यूटी-पार्लर खोलेंगे। तुम तो जानती ही हो, साहब सुबह घर से चले जाते हैं और लौटते हैं शाम के बाद। वैसे भी मैं घर में बिना काम के बैठे-बैठे एकदम बोर हो जाती हूँ। क्या करूँगी दिनभर ख़ाली बैठे-बैठे ? अगर हम एक ब्यूटी-पार्लर खोल देते हैं, तो क्या उसको चलाने में तुम मेरी मदद नहीं करोगी ? तुम तो बहुत अच्छा थ्रेडिंग करती हो । अभी जब मैं तुम्हे घर में काम करने के लिए तीन सौ रुपये महीना पग़ार देती हूँ । नया काम प्रारम्भ होने की अवस्था में मैं तुम्हे एक हज़ार रुपये दूँगी । अभी से स्पष्ट कह देती हूँ। अगर पार्लर अच्छा चलेगा, तो और ज़्यादा पैसे दूँगी।”
तीन सौ रुपये से बढ़कर एक हज़ार रुपये पाने की आशा में मीरा की आँखे चमक उठी थी । वह दुगुने उत्साह के साथ बोली, “आप मुझे तरह-तरह की डिजाइन वाले बाल काटना और अच्छे ढंग से सिखा देना।”
“अवश्य, यह काम तुम अच्छे ढंग से कर सकती हो।” तीशा बोली, “उस बार जब तुमने मेरे ‘स्टेप-कट-बाल’ काटे थे, क्लब में किसी को भी विश्वास ही हो पाया था कि तुम्हारे अदक्ष हाथों में इतनी दक्ष-कला है !”
ऐसे ही बैठे-बैठे, तीशा और मीरा हवाई किले बनाती थीं और कुछ समय बाद हक़ीक़त की दुनिया में लौट आती थीं। फिर से अनमने भाव से अपने-अपने संसार के सुख-दुख में गोते लगाने लगती थीं। गैरेज, पार्लर में और नहीं बदलता था। गैरेज को पार्लर में बदलने के अनुमानित ख़र्चे के विस्तृत विवरण वाली छोटी कॉपी ऐसे पड़े-पड़े ही एक दिन रद्दी की टोकरी में खो जाती थी। जिसमें लिखा हुआ होता था मशीनों तथा उनकी एसेसरीज, फ़र्नीचर, कँधी-कैंची आदि सामानो का ख़र्च। थोडे ही दिनों के बाद तीशा पूर्ववत् मालकिन की, तो मीरा नौकरानी की भूमिका में आ जाती थी, फिर से तीशा मीरा की छोटी-छोटी ग़लतियाँ ढूँढकर डाँटना शुरू कर देती थी।
कुछ ही दिन बीते होंगे, तीशा फिर से कहने लगी, “मीरा, जानती हो ! आजकल तो गली-गली में पार्लर खुल गए हैं । ब्यूटीशियन लडकियाँ घर-घर सेल्स-गर्ल की भाँति जाकर पेड़ीक्योर, मेनीक्योर, फ़ेशियल आदि करती हैं। पार्लर खोलने से कोई ख़ास फ़ायदा नहीं है, कडी-प्रतिस्पर्धा का भी सामना करना पडेगा। अच्छा होगा, हम एक ‘हेल्थ-क्लब’ खोलें। ऐसे भी आजकल की औरतों में तो दुबली-पतली दिखने का फ़ैशन चल रहा है। देखना, कॉलोनी के अंदर हेल्थ-क्लब खोलने से बहुत भीड़ लगेगी। ये औरतें कहीं और नहीं जा पाती हैं। यहाँ हेल्थ-क्लब खुलने से, जब उनको फ़ुर्सत मिलेगी, आ सकेगी। हम लोगों को करना भी क्या है ? सिर्फ़ क़सरत करने के कुछ उपकरण व अन्य सामान लाकर रख देने से अपना काम हो जाएगा। ज़्यादा से ज़्यादा, टर्किश टॉवेल और साबुन भी रख देंगे। उससे ज़्यादा, बगीचे में जो नल लगा हुआ है, उसके पास एक छोटा-सा बाथरुम बना देंगे। नहाने की भी सुविधा हो जाएगी। बाक़ी और क्या रह जाएगा ? बता तो। हाँ, हाथ धोने के लिए एक बेसिन ज़रूर लगाना पडेगा, पर उसमें कोई ज़्यादा ख़र्च नहीं आएगा। हम एक काम करेंगे, सभी सदस्यों से हर महीने शुल्क के तौर पर कुछ न कुछ रुपए लेंगे। तुम्हारा काम क्या है ? जानती हो, केवल गैरेज की साफ़-सफ़ाई का ध्यान रखना। तुम्हारे ऊपर काम का और ज़्यादा बोझ भी नहीं डालूँगी, अब तो राजी ?”
मीरा हँसकर बोली थी
“मैं क्या करूँगी ? मुझे नहीं पता, ये सब चीज़ें क्या होती हैं ?”
“तुमने टी.वी. में नहीं देखा है ? ऐसे बोल रही हो मानो कुछ भी मालूम नहीं हो। इतनी भोली मत बनो।” चिढ़ गई थी तीशा। फिर एक दिन टी.वी. प्रोग्राम में उसको हैल्थ क्लब में प्रयुक्त होने वाले उपकरणों को दिखलाया।
“जानती हो मीरा ! अगर हम भाप-स्नान तथा मालिश की भी व्यवस्था कर दें, तो सोने पर सुहागा...”
“ये सब क्या होता है?”
“कुछ भी नहीं। बहुत छोटी-सी चीज़ें है। किसी भाप स्नान के इच्छुक व्यक्ति के शरीर पर तेल और क्रीम की मालिश करके बाथरुम में कंबल ओढाकर बैठा दीजिए। फिर एक पाइप से बाथरुम में भाप छोडिए। बस, अपने आप ही उनकी चमड़ी साफ़ हो जाएगी और उनका शरीर सुन्दर व स्वस्थ दिखने लगेगा।”
“मालिश और आदमियों की ? ना, बाबा ना”
“धत् ! आदमियों की नहीं, सिर्फ़ औरतों की। इस काम के लिये तुमको कुछ अतिरिक्त रूपए-पैसे भी दूँगी, चिन्ता मत करो।”
इस बार भी गैरेज हैल्थ-क्लब में नहीं बदला। इस उम्र में मीरा का मन बहुत चंचल था। मीरा बहुत बेचैन रहती थी। आजकल वह ठीक ढंग से काम नहीं कर पा रही थी इसलिये तीशा उसको डाँटती थी।
ऐसा लग रहा था मानो मीरा के दो पंख निकल आए हो, जैसे ही उसको किसी का साथ मिलेगा वह फुर से उड़ जाएगी ।
एक दिन तीशा बोली, “देख, मीरा ! अब तुम्हारे शादी-ब्याह का समय आ गया है। आज नहीं तो कल शादी होगी ही होगी। कुछ रूपए-पैसों की बचत क्यो नहीं करती हो ? कुछ पैसे अपने हाथ में रखो। कल जब अचानक ज़रूरत पड़ जाएगी, तो तुम क्या करोगी ? हाथ में पैसे होंगे तो अपनी शादी के लिए तुम थोड़ा-बहुत सोना-चाँदी के जेवर भी ख़रीद सकती हो। । तुम्हारे माँ-बाप तो ये चीज़ें देने में सक्षम नहीं हैं। अगर तुम थोड़ा-बहुत पैसे बचाओगी तो कुछ न कुछ अपने घरेलू जीवन का सामान बना सकती हो।”
“मैं कहाँ से पैसे बचा पाऊँगी ? आपके घर से जो पग़ार मिलती है, वह भी तो मेरी माँ रख लेती है।”
“इसलिए तो मैं कह रह थी कि मेरे पास एक सिलाई मशीन है जो कई दिनों से ऐसे ही पड़ी रहने से उस पर मकड़ी के जाले भी लग गए हैं। मेरी बेटी तो अपनी पढ़ाई में व्यस्त है। अपनी पढ़ाई छोड़कर सिलाई मशीन को तो हाथ भी नहीं लगाएगी। मैं तुमको सिलाई करना सीखा देती हूँ, तीन-चार दिनों में सीख जाओगी। ऐसा कोई विशेष कठिन काम नहीं है। बहुत ही सरल है। तुम तो पहले बता भी रही थी कि तुम्हारी बस्ती में दो-चार लड़कियाँ सिलाई-कढ़ाई का काम जानती हैं। उनको भी हम यहाँ बुला लेंगे। अगर ज़रूरत पड़ी तो, मैं दो तीन और सिलाई मशीनें भी ख़रीद लूँगी। गैरेज में तुम सब बैठकर सिलाई का काम करते रहना। टाइम पास का टाइम पास और काम का काम। बातें करते-करते काम भी हो जाएगा। कपड़ों की कटिंग का ज़िम्मा मेरा है। मुझे तो ऐसा लग रहा है कि मैं अपने मन से बढ़िया से बढ़िया डिजाइन भी बना पाऊँगी। सिलाई-अध्यापक ने हमें ब्लाऊज बनाना, फ़्राक काटना आदि सिखाए थे। अभी भी मुझे वे सारी चीज़ें याद हैं। हम एक ‘बूटीक’ का नया काम भी शुरू करेंगे।”
“बूटीक ? यह क्या होता है ?” आश्चर्य-चकित होकर उसने पूछा।
“बूटीक मतलब नये-नये डिजाइनों वाली पोशाकों में लैस, जरी चूमकी लगाने का काम। बूटीक लगाकर हम कपडे बेचेंगे। बूटीक का काम यहाँ नहीं करेंगे, यहाँ तो सिर्फ़ उसकी तैयारी करेंगे। इस काम के लिए बाज़ार में एक घर किराए पर ले लेंगे। यहाँ का काम तुम्हारे जिम्मे और वहाँ का काम मेरे।”
“पहले तो मैं सिलाई सीख लूँ” मीरा हँस-हँसकर बोली।
“अरे ! मैं सिखाऊँगी न!” तीशा दृढ़-संकल्प के साथ बोली । “अच्छा आ, पहले इधर आ, इधर आकर बैठ।” वह बरतन आधे साफ़ करते-करते छोड़कर आ गई। तीशा सिलाई-मशीन का कवर हटाकर बोली-
“देखो, पहले सिलाई-मशीन को साफ़ कर लो। उसके बाद इस तरह बोबीन में धागा पिरोना है। इस फिरकी को बोबीन कहते है। इसको नीचे की तरफ़ रखा जाता है। उसके बाद ऊपर जो रील देख रही हो, उसका धागा निकालकर सूई में पिरो देते हैं। अब तुम इस स्टूल पर बैठो तथा सिलाई-मशीन को चलाकर देखो।”
मीरा ने पहले कभी भी सिलाई मशीन नहीं चलाई थी। उसके पैरों से सिलाई-मशीन उल्टी दिशा में घूमना शुरु हो गई। अतः बोबीन का धागा टूट गया। तब तीशा ने उसे ढाँढस बँधाते हुए कहा था, “कोई बात नहीं, अभी तुम अपने पैरों को सिलाई-मशीन पर जमाने की ही प्रेक्टिस कर, फिर सब ठीक हो जाएगा।”
मीरा बड़ी असहाय दिख रही थी। उसको अभी भी आधे बरतन साफ़ करने बाक़ी थे, कपड़े भी धोने बाकी थे, वाश-बेसिन व सिंक भी साफ़ करने शेष थे, घर भी पूरी तरह पोंछ नहीं पाई थी। वह कहने लगी-
“कल प्रेक्टिस करने से नहीं चलेगा।”
“अरे ! तुमसे कुछ भी नहीं होगा। मैं तो तुम्हारे भलाई के लिए ही कह रही थी। मगर तुम्हारी तनिक भी इच्छा नहीं है तो मैं और क्या कर सकती हूँ ? आजकल तो तुम्हारा मन आसमान में उड़ता है। मुझे नहीं लगता है कि तुम कुछ और कर पाओगी। जा, जाकर अपना बचा हुआ काम कर।”
सिर्फ़ मीरा ही क्यों ? कॉलोनी में मीरा की हम-उम्र जितनी लड़कियाँ काम करने आती थीं, उन सभी का मन ऐसे ही भटक रहा था। कुछ दिन ऐसे ही गुज़रने के बाद यह ख़बर सुनने को मिली कि मीरा किसी राम, श्याम या यदु के साथ भाग गई। कुछ दिन ऐसे ही गृहस्थ-जीवन बिताने के बाद अपने साथ कई कड़वी अनुभूतियों को लेकर फिर वे लड़कियाँ वास्तविकता के धरातल पर लौट आती थीं। अपने पापी पेट के ख़ातिर फिर से कॉलोनी में काम ढूँढना नए सिरे से शुरू कर देती थीं।
मीरा की दीदी की शादी एक राजमिस्त्री के साथ हुई थी। उसके माँ-बाप ने एक योग्य-पात्र देखकर, अपने समाज, पास-पडोस को दावत देकर शादी करवा दी थी। मगर मीरा की शादी के लिए उनके पास पैसे नहीं थे, यहाँ तक कि टीवी ख़रीदने या पाँच-दस हज़ार ख़र्च करने के लिए भी नहीं।
एक बार और तीशा बोली - “चल, मीरा एक ‘क्रेश’ खोलेंगे।”
मीरा निर्धन बस्ती में रहती थी। क्रेश बोलेने से वह क्या समझती ? पूछती थी, “क्रेश क्या होता है ?”
“तुम तो जानती हो कि आजकल की औरतों के पास समय की कमी हैं। कोई नौकरी करने जाती है, तो कोई अपना व्यापार करने। किसी-किसी का किट्टी-पार्टी में, किसी-किसी का क्लब में तो किसी-किसी का शापिंग में पूरा दिन यूँ ही बीत जाता है। छोटा परिवार, बच्चों को कहाँ रखेंगे ? फिर काम पर भी जाना है न ! कहाँ पर रखकर जाएँगे बच्चों को ? इसलिए आजकल क्रेश की आवश्यकता पड़ने लगी है। क्रेश में छोटे-छोटे बच्चों को सँभाला जाता है। अगर हम इस गैरेज को साफ़-सुथराकर सजा देते हैं तो एक सुंदर क्रेश बन जाएगा। केवल कुछ खिलौनों की ज़रुरत पडेगी। वे सब खरीद लिये जाएँगे। लेकिन यह बात अलग है, कि बच्चों के आगे-पीछे भागना पड़ेगा। खैर, कोई बात नहीं, उनके खेलने के लिए मैं अपना लॉन ऐसे ही छोड़ दूँगी। मगर बच्चे तो बच्चे हैं, सू सू भी करेंगे। तुम्हारी सहायता के बिना यह सब मुझसे अकेले नहीं हो पाएगा।”
थोडी देर सोचने के बाद मीरा बोली थी कि आप आँगन-बाडी की बात कह रहे हैं ? ख़ूब हँसी थी तीशा उस दिन।
“आँगनबाड़ी नहीं..... पगली और कुछ होता है क्रेश।”
“देखती हूँ मैं अपनी माँ को पूछ कर बताऊँगी। आजकल मेरी माँ चने बेचने स्कूल जाती है। यहाँ से जाने के बाद घर पर मैं खाना बनाती हूँ।”
क्रेश खोलने की योजना बनाए हुए पन्द्रह दिन ही बीते थे कि मीरा ने वहाँ आना बंद कर दिया था। अचानक वह गायब-सी हो गई। वह एक दिन नहीं, दो दिन नहीं, दिनों-दिन तक अनुपस्थित रहने लगी थी। कॉलोनी में काम करने वाली लड़कियों ने ख़ुद आकर बताया था कि आपके यहाँ काम करने वाली मीरा किसी दरबान के साथ भाग गई है।
“हे ! क्या बोल रही हो ?” चौंक गई थी तीशा।
“आख़िर उस बदमाश लड़की ने वही किया, जिसका मुझे संदेह था। छीः छीः! अच्छा बताओ, किस दरबान के साथ भागी है वह ?”
“आपके घर के सामने जो गुलमोहर का पेड़ है न, उसके नीचे प्रायः बैठता था।”
कॉलोनी में बारी-बारी से चौकीदारी करने सात-आठ दरबान आते थे । दिन में दो दरबान रहते थे तो रात में दूसरे दो दरबान। मीरा इन्हीं में से किसी एक के प्रेम-जाल में फँस गई थी। रोज़ तीशा गेट के पास आकर देखती थी कि कौन-सा गार्ड आज अनुपस्थित है ? परन्तु कभी भी वह गार्ड लोगों के मुँह नहीं लगती थी, इसलिए वह समझ नहीं पाती थी कि कौन-सा दरबान नहीं आ रहा है।
दो साल के बाद मीरा अपनी पुरानी बस्ती को लौट आई थी। परन्तु अपने पिता के घर के दरवाज़े उसके लिए हमेशा-हमेशा को बंद हो गए थे। कारण वह दरबान नीच, हरिजन-जाति का था। मीरा एक हरिजन लड़के के साथ भाग गई, तब से उसका बाप तेज़ धार वाली कुल्हाडी लेकर उसकी गर्दन उड़ाने के लिए बैठा था। मगर उसकी माँ विगत कई दिनों से पन्द्रह किलोमीटर दूर बसाए हुए मीरा के घर-संसार के लिए गुप्त सहायता भेजती थी।
कभी-कभी मीरा की माँ तीशा के बगीचे से घास-फूस व खतपतवार निकालने आती थी तब वह मीरा के सुख-दुख के बारे में सुनाती थी। कैसे मीरा के पति ने दरबान की नौकरी खो दी और बाद में अभी तक किसी भी नई नौकरी का जुगाड़ नहीं कर पाया। दुखी मन से वह कहती थी -
“आजकल मीरा का पति एक आटा-चक्की में काम कर रहा है, लेकिन वहाँ भी वह नियमित रूप से काम नहीं करता है अतः मीरा के घर में किसी न किसी चीज का अभाव हमेशा बना ही रहता है। उसका आदमी बहुत ही आलसी और रोगी क़िस्म का है। काम पर नहीं जाता है, उल्टा मीरा के साथ मार-पीट करता रहता है। मीरा गर्भवती भी हो गई है, यह जानकर मैं कभी चावल, कभी सब्जी, कभी कुछ कपड़ा वगैरह उसके भाई के हाथ से उसके पास भेज देती हूँ। मगर कितने दिनों तक यह सब चलेगा ?”
एक दिन मीरा की माँ तीशा के घर काम करने आई। तीशा ने उससे पूछा
“और, मीरा के क्या हाल-चाल है?”
“एक बच्चा गोद में, तो एक बच्चा पेट में।”
“हे भगवान! वह आदमी उसे ठीक-ठाक रखता है तो ?”
“वह क्या रखेगा ? आलसी बीमार आदमी। मीरा बिस्किट, चॉकलेट और दारु बेचने का काम कर रही है।”
“दारु ! दारु बेच रही है ?”
“हाँ, माँ ! छोटा-मोटा व्यापार करती है। दस लीटर वाले केन में दारु लाकर अडोस-पडोस वालों को बेचती है। बेचारी और क्या करेगी ? अगर यह भी नहीं करेगी तो उसका घर कैसे चलेगा ? उसमें से भी उसका पति आधा-दारु पी लेता है और फिर झगड़ा करके मार-पीट करता है।”
अपने गृहस्थ-जीवन से मोह भंग होने के कारण मीरा दो ही साल में दो बच्चों को लेकर लौट आई थी। पिता के घर के पास-पडोस की बस्ती में रहना उसके लिए मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन भी था। उस बस्ती से थोडी-सी दूरी पर उसने एक घर किराए पर लिया था। पुरानी जगह लौट आने के बाद भी, उसके पति को वह पुरानी नौकरी नहीं मिल पाई थी। कुछ दिन वह हाज़िरी-मज़दूरी पर भी गया था। मगर उसके आलसपन के कारण वहाँ भी वह ज़्यादा दिन टिक नहीं पाया। घर में ख़ाली हाथ बैठा रहता था। ख़ाली दिमाग़, शैतान का घर। ख़ाली बैठे-बैठे वह मीरा के साथ झगड़ा करने लगता था। यद्यपि मीरा के पिताजी मीरा को ‘काट दूँगा, काट दूँगा’ की धमकी देते थे, मगर अपने नाती के ऊपर तनिक भी क्रोध नहीं करते थे। बाज़ार में देख लेने से वह नातियों को अपनी गोदी में उठा लेते थे, खाने के लिए बिस्किट, चॉकलेट भी देते थे । मगर मीरा के लिए वही पूर्ववत् व्यवहार। उसके लिए अपने घर के सभी दरवाज़े बंद। चार-चार पेट पालने के लिए खाना कहाँ से नसीब होता ? इतने दिनों तक तो माँ कुछ न कुछ चोरी-छुपे मदद कर देती थीं। उसका तो ख़ुद का जीवन भी तंगहाल में बीत रहा था। मीरा वापिस आई थी कॉलोनी में काम ढूँढने। खोज करने पर उसे एक घर मिल भी गया था, परन्तु मीरा का पति शक्की-मिजाज का आदमी था। कई दिन तो उसका पीछा करते-करते कॉलोनी तक पहुँच जाता था। नहीं तो, अचानक पहुँच जाता था यह देखने के लिए कि वह घर का काम करती है या किसी दूसरे गोरख-धंधे में पड़ी रहती है।
इसी दौरान उसके बड़े बेटे को पोलियो हो गया था। धीरे-धीरे वह इतना कमज़ोर होता गया कि उसके छोटे बेटे से भी छोटा दिखाई देने लगा। उसको डाँक्टर को दिखाने के लिए जो कुछ पैसा उसको मिलता था, अपने मकान-मालकिन के पास जमा होने के लिये रख देती थी। परन्तु कॉलोनी का काम भी ज़्यादा दिनों तक नहीं चला, अपने पति की संदेह-प्रवृति की वजह से उसे वह काम भी छोड़ना पडा।
उसके बाद मीरा दारु की दुकान के सामने अंडा, ऑमलेट, चना-मूँगफली बेचने लगी। यह बात अलग थी कि इस काम में उसका पति भी मदद करने लगा था। परन्तु किस्मत की मारी, मीरा का यह काम भी ज़्यादा दिनों तक नहीं चल पाया। जो कुछ भी कमाई होती थी, उसका पति उसे दारु में उडा देता था। मीरा का भव-संसार ऐसे ही टूटी-फूटी नौका से पार हो रहा था। कभी गृह-निर्माण के काम में मजदूरी करती थी, तो कभी स्कूल के सामने अंडा और चना-मूँगफली बेचती थी। सभी कोई अपने-अपने भाग्य के सहारे अपना-अपना जीवन-यापन करते हैं। शायद भाग्य में ऐसे ही मीरा का जीवन कटना लिखा होगा !
परन्तु यह तीशा की सोच के परे था कि अचानक मीरा उनके घर पहुँचकर अपने रहने के लिए गैरेज माँगेगी। क्या उत्तर देती ? उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था।
“चाय पिओगी, मीरा?” तीशा ने पूछा और वह अपनी नई नौकरानी को कहने लगी
“ऐ, विमला ! जा तो मीरा के लिए एक कप चाय बना दो।”
“रहने दीजिए, चाय नहीं पीऊँगी। मैंने तो अपने पति को छोड़ देने का निश्चय कर लिया था। हमारी बस्ती के कुछ लड़के भी मेरे साथ थे मगर अब वे लड़के भी मेरी बात नहीं सुनते हैं।”
“तुम क्या कह रही हो ? मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। जरा कुछ खुल कर बता” बोली थी तीशा।
“मैंने अपने जीवन में बहुत बडी भूल कर दी।”
“हाँ, उस आदमी के साथ शादी करके। तुम और क्या कर सकती थी ? तुम्हारे माँ-बाप तो तुम्हारी शादी नहीं करवा पा रहे थे। कहीं से कोई दूल्हा ढूँढ तो नहीं पा रहे थे।”
“वे लोग जरूर ढूँढते, मगर मैंने ही बहुत बड़ी ग़लती कर दी।” रोते-रोते मीरा बोलने लगी।
“अब मेरे पास सिर छुपाने के लिए एक इंच भी जगह नहीं है।”
“क्यों ?”
“आप लोग दिल्ली की तरफ़ गए थे ना ? मैं बीच में आई थी, घर में ताला लगा हुआ था।”
“हाँ, हम लोग बाहर गए थे दस दिन के लिए। तुम आई थी इसी बीच में ?”
“उसने मुझे किसी घर में काम करने नहीं दिया। वह कह रहा था कि ख़ुद कमाकर लाएगा और मैं सिर्फ़ बच्चों को सँभालूँगी। मेरे कारण उसका बच्चा लंगड़ा हुआ है और बीमार पड़ा है।”
मीरा उल्टे तीशा को पूछने लगी-
“मेरी वजह से ये सब हुआ? बोलिए तो। वह ख़ुद तो उसको लेकर गया था अपने साथ, नहाने के लिए कुँए पर। पता नहीं, वहाँ कैसे गिर गया ? तभी से वह ऐसे ही लंगडाता रहता है।”
मीरा की बातों में कोई ताल-मेल नहीं रहता था। क्या-क्या कह देंगी, पता नहीं चलता था। तीशा बोली
“हाँ, मालूम है मुझे वह बात। अभी क्या हो गया है तुम्हे ? बताओे”
“मुझे क्या होगा ? मैं तो घर पर ख़ाली बैठी थी मगर वह भी काम पर नहीं जाता था। ऐसे में चार-चार पेट कैसे पाले जा सकते थे ? फिर मैंने हाज़िरी मज़दूरी पर जाना शुरू किया । मैं रेजाकुली के काम में सुबह आठ बजे से निकलती थी तो शाम होने पर घर आती थी। उस समय भी वह घर में सिगड़ी भी जलाकर नहीं रखता था। उल्टा मुझ पर संदेह कर, मुझसे पैसे छीनता और मारने लगता था। मैं उस शाम खाना खाने बैठी ही थी कि वह रुपये माँगने लगा। मैने रुपए देने से इंकार कर दिया। तो उसने भीतर से लोहे की एक भारी-भरकम छड़ लाकर मेरे सिर ज़ोर से वार कर दिया। बस, ख़ून से लहुलूहान हो गई मैं। पास-पडोस वालों की मदद से मुझे अस्पताल ले जाया गया। जहाँ सात टाँके भी लगाए गए। बस्ती वाले लड़कों ने उसको गाली देते हुए थप्पड-मुक्कों से मारा। पुलिस उसको बाँधकर थाना ले गई। अगर मैं अस्पताल नहीं जाती, तो शायद पुलिस केस नहीं बनता। यहाँ की पुलिस ने उसे सदर थाने की पुलिस के पास भेज दिया। दो महीने तक वह जेल में पड़ा रहा। इधर मेरे ससुराल वाले बार-बार मेरे पास दौड़ने लगे और आग्रह करने लगे कि केस को वापिस ले लूँ। हमारी बस्ती के लड़कों ने कहा था कि अगर मैने केस वापिस ले लिया तो भविष्य में कभी भी ज़रूरत पडने पर वे मेरे साथ खड़े नहीं होंगे तथा मेरी बिल्कुल भी मदद नहीं करेंगे। अब तो मैं तो ठीक हो गई हूँ।”
एक लंबी श्वाँस लेते हुए मीरा ने कहा
“वह तो जेल में था और मैं अपने दोनों बच्चों को मकान मालकिन बूढ़ी के पास छोड़कर, कोयला ढोकर बेचने के लिए, स्टेशन चली जाती थी। सिर के बल एक बोरा कोयला ढोना कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। दिन-भर मेहनत मज़दूरी करने से जितनी थकान नहीं लगती है, उतनी एक किलोमीटर कोयला ढोने से लगती है। कोयला ढोना बहुत ही कष्टकारी काम है। पेट के अंदर ही अंदर आँते मरोडें लेने लगती हैं । इतना होने पर भी मैं ठीक थी। मेरे जेठ और सास आए थे मुझे यह समझाने के लिए कि केस वापिस ले लूँ । मेरी सुरक्षा के लिए वे लोग ज़िम्मेदारी ले रहे थे। कह रहे थे वे लोग मेरे लिए हैं ना ! अगर उसके बाद वह कुछ करेगा तो हम तुम्हारे साथ हैं। इधर बस्ती वाले लडके कह रहे थे, उसे कुछ और दिन थाने में रहने दो। तलाक के लिए तुम केस फ़ाइल कर दो। ऐसे भी तो जीवन चल रहा था। हर रोज कोयला बेचकर लगभग चालीस रुपया कमा लेती थी। जो कुछ पैसा मिलता था, उसे बचाकर रखती थी ताकि बडे बेटे का आपरेशन करवा सकूँ। उस दिन भोर-भोर मेरी सास पहुँची और मुझे बुलाकर उनके घर ले गई । काश ! मैं उसके घर नहीं जाती ! पता नहीं, क्यों गई ? क्या हो गया था मुझको ? सभी लोग सो रहे थे, कोई भी उठा नहीं था तब तक।”
“सास के घर चली गई तो चली गई, इससे क्या दिक्कत हुई ?” तीशा ने पूछा।
“मैं कमज़ोर हो गई या नहीं। उन्होंने मुझे ख़ूब खिलाया-पिलाया। पाँच लोगों ने पाँच तरह की बातें कहकर समझाया-बुझाया। और मैं केस को वापस लेने के लिए राजी हो गई। उन्होंने पैसा ख़र्च करके उसे छुडाकर घर ले आए।”
“तो ?” तीशा बोली।
“हमारी बस्ती के सभी लडके मेरे ऊपर बहुत बिगडे। वे सब गुस्से में थे। कहने लगे, अगर और मारेगा-पीटेगा तो हमें मत बोलना। इधर मेरे ससुराल वाले आराम से बैठे हैं, जितना भी बोलों, कुछ भी नहीं सुनते हैं।”
खत्म न होने वाली कहानी को सुनकर तीशा उबने लगी ।
“हाँ, ये सब हुआ, उसके बाद आगे क्या हुआ ? मेरे घर में क्यों रहना चाहती हो ?”
इधर काम करते करते विमला, मीरा की कहानी भी सुन रही थी। मीरा आगे बोलने लगी
“मैंने उसको एक सप्ताह तक अपने घर में घुसने नहीं दिया था। मैं अपने ससुराल-वालों को कह दिया था कि आप अपने बेटे को सँभालो। वैसे उसने भी घर आना बंद कर दिया था। मगर उस आधी रात को, पता नहीं, किसने मेरा दरवाज़ा ज़ोर-ज़ोर से खटखटाया। मुझे डर लगने लगा था। मैंने मकान-मालकिन बूढ़ी को आवाज़ दी। हमने दरवाज़ा खोलने के बाद देखा तो बाहर कोई नहीं था।”
“उसके बाद?”
“उसके बाद और क्या कहूँ ? बूढ़ी ने सुबह मुझे अपना घर ख़ाली करने के लिए कहा। बोलने लगी कि मैं तुम्हें और रख नहीं पाऊँगी। इधर पूरी बस्ती भर में मेरी बदनामी। सब धिक्कारने लगे कि मैं एक अच्छी औरत नहीं हूँ। मैं भ्रष्ट-पतित हूँ। अब कोई मुझे घर देने के लिये भी राजी नहीं होता है।”
“अभी तक क्या तेरे बाप का गुस्सा शांत नहीं हुआ ?” तीशा ने दुखी स्वर में पूछा ।
“वे तो मुझे देखते ही रास्ते से ही मुड़कर चले जाते हैं।”
“और ससुराल वाले ?”
“वे लोग मुझे अपने साथ नहीं रखेंगे। मेरे उनके घर जाने से उनकी जाति वाले लोग उन्हें परेशान करने लगेंगे।”
गैरेज..... आज तक गैरेज को लेकर कितनी कल्पनाओं के बीज बोए थे तीशा ने। कितने सारे कामों में उपयोग किया जा सकता था गैरेज का, वह सोच रही थी। यह बात मीरा भी जानती थी। बेचारी कितनी आशाओं को संजोए वह दौड़-दौड़कर आई थी इसी उम्मीद के साथ कि छत ढकने के लिए यहाँ एक छत ज़रूर मिल जाएगी। क्या जवाब देती वह मीरा को ? तीशा तो ऐसे चुप थी मानो उसे कोई साँप सूँघ लिया हो। वह गैरेज, गैरेज न होकर तीशा का एक स्वप्न-महल था। वह कभी नहीं चाहती थी कि कोई उसके हाथ से उसके सपनों को इस तरह छीन ले। मीरा के साथ मिलकर कितने बड़े-बड़े सपनों के महल बनाया करती थी वह ! अब मीरा के सामने किस प्रकार सपनों के महल को समर्पित कर देगी ? परन्तु आज मीरा का बुरा समय था । गैरेज को अनावश्यक ख़ाली पड़ा सोचकर ही मीरा दौडकर आई थी सिर छुपाने के लिए एक जगह की तलाश में। वह अंतर्द्वंद में थी। क्या होगा तीशा के सपनों का ? अगर वह गैरेज हाथ से चला गया तो उसके पास सपने देखने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा। उसे ऐसा लग रहा था मानो उसकी बंद मुट्ठी को कोई ज़बरदस्ती खोलकर उसके सपनों को छीन रहा हो। तीशा बड़ी ही असहाय अनुभव कर रही थी मानो वह पूर्णरूपेण कंगाल हो गई हो। सोच रही थी मीरा को क्या बोलेगी ? साहिब आने के बाद पूछकर बताऊँगी ? अगर मीरा के पीछे-पीछे उसका पति आकर झमेला करने लगेगा तो क्या कहेगी वह ? कैसे मना कर पाएगी वह मीरा को ?
अब तक चुपचाप श्रोता बनी हुई थी विमला। अचानक पास आकर बोली- “दीदी ! तुम गैरेज में रहने के लिए बोल रही हो। हे भगवान ! गैरेज के अंदर से तो दो बार नाग-साँप निकला था।”
अरे ! यह बात तो बिल्कुल सही है। गैरेज में रखी स्पेअर-पार्ट की पेटी से दो बार नाग-साँप निकला था। ये बातें तीशा के दिमाग़ में क्यों नहीं आई ! कितनी बखूबी विमला ने उसका बचाव करते हुए सँभाल लिया था उस असमंजस वाली परिस्थिति को।
साँप निकला था सही बात है, मगर वह नाग नहीं था, कोई बिना जहर वाला धमना साँप था। यहाँ के स्थानीय लोग हर साँप को नाग-साँप कहना पसंद करते हैं। तीशा विमला की उस ग़लती को जान-बूझकर सुधारना नहीं चाहती थी। इन बातों से मीरा के चेहरे की हवाईयाँ उड़ने लगी। उसका चेहरा सूखकर एकदम कांतिहीन हो गया। वह कुछ भी बोल नहीं पा रही थी। विमला के साथ कुछ भी उसने तर्क नहीं किया। केवल इतना ही बोली,
“मैं जा रही हूँ।”
मीरा चली जा रही थी। तीशा उसको छोड़ने गेट तक गई। वैसे उसे गेट तक जाने की कोई ज़रूरत नहीं थी, वह तो उसकी पुरानी-नौकरानी थी। मगर भीतर से कोई उसे विचलित कर रहा था। वह समझ नहीं पा रही थी कि उसने ठीक किया या ग़लत। उस लड़की ने कितनी बार उसके पैर दबाए थे, बीमारी की अवस्था में कितनी सेवा-सुश्रुषा की थी, यहाँ तक कि कई बार खाना बनाकर भी खिलाया था। दोनों मिलकर कितने दिवा-स्वप्न देखा करते थे। आज इस अवस्था में उसको मँझधार में छोड देना कोई उचित काम नहीं था। मगर यह भी सत्य था, अगर एक बार उसने अपने दिवा-स्वप्नों की बंद मुट्ठी खोल दी तो क्या वे सपने कभी साकार हो पाएँगे?
इधर मीरा जा रही थी अपने दोनों बच्चों को लेकर, उधर तीशा का मन द्रवित हो रहा था बिना किसी वजह से।
“अहा रे ! बेचारी”
तीशा को यह अच्छी तरह याद था कि उसने मीरा के जाने के बाद दो साल से गैरेज को लेकर कभी भी कोई सपना नहीं देखा था। पर यह कैसी विडम्बना थी ? सपने टूटकर चूर-चूर हो जाएँगे, सोचकर मीरा को ख़ाली हाथ लौटा दिया।
तीशा हाथ हिला-हिलाकर, इशारों की भाषा में मीरा को बुलाने लगी। तब तक तो मीरा एक बित्ता लाल-पीली साड़ी का अंश बन चुकी थी। उसका वह आर्तनाद मीरा तक नहीं पहुँच पा रहा था। वह सोचने लगी, कोई बात नहीं, जाने दो उसे आज। फिर कभी जिस दिन वह लौटकर आएगी, तो वह उससे कहेगी,-
“तुम आराम से गैरेज में रह सकती हो। पर गैरेज और बगीचे को एक साथ मिलाकर हम फूल-पौधों की एक नर्सरी बनाएँगे। कैसा रहेगा, बतलाओ तो मीरा?”

Comments

  1. सूरत, अहमदाबाद प्रवास से लौट कर मैंने आपकी मेल देखी पश्चात~ कहानी गेरेज एक ही सांस में पढ़ गई। स्वार्थो के आगे मनुष्यता, करूणा, ममता, दया, जैसे मानवीयता के सभी पहलू गौण है। जिस गेरेज लेकर कथा नायिका तीशा अपने सपनों के ताने-बाने बुना करती थी उसमें मीरा को वह एक मददगार के रूप में देखती थी। उसके सपनों में महत्वकांक्षाओं की उड़ान थी। किन्तु जब परिस्थिति की मारी मीरा रहने के लिये गेरेज में जगह मांगती है तो क्षणभर के लिए बौखला जाती है। स्वार्थ और महत्वकांक्षा उसके सभी मानवीय गुणों को कुचल देते है। यहां तक की वह मीरा दी गई समस्त सेवाओं को भी भुला बैठती है। उसे इसका अहसास तब होता है जब मीरा जा चुकी होती है।
    बड़ी मार्मिक कहानी है जो मन को छू लेती है। हम सभी के मन में कई तीशा बैठी है जो समय-असमय अपने दर्शन करा जाती है।
    आपकी कहानी से प्रेरित हो मैंने अपने ब्लाग पर एक कविता पोस्ट की है।
    आपकी शुभाकांक्षी
    विमला भंडारी

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  2. बहुत अच्छी और बहुत अच्छे ढंग से लिखी हुई कहानी है। मध्व वर्ग की सीमाओं को समझने में अनुवार्य रूप से सहयोगी। कहानी की सबसे बड़ी खूबी है, इसकी सादगी। लेखिका को अपनी ओर से कुछ भी कहने की जरूरत नहीं पड़ी। कथा सब कुछ अपने स्तर पर ही कहती है।

    लेखिका को बहुत बहुक बधाई।
    -राजकिशोर, दिल्ली

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  3. Anonymous7:44 AM

    बहुत अच्छी बुनी गई कहानी

    एग्रीगेटरों के द्वारा अपने ब्लॉग को हिंदी ब्लॉग जगत परिवार के बीच लाने पर बधाई।

    सार्थक लेखन हमेशा सराहना पाता है।

    मेरी शुभकामनाएँ

    बी एस पाबला

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  4. एक मध्यवर्गीय परिवार की महिला निम्नवर्गीय लड़की के श्रम और अपनी संपत्ति को ले कर सपने बुनती है। सपने इतने भारी भरकम हैं कि उस में निम्नवर्गीय लड़की खुद को फिट नहीं पाती। और वह अपने सपने को साकार करने चल देती है। सपना टूटने पर जब वह उसी मध्यवर्गीय महिला के पास आती है तो उस दशा में वह निम्नवर्गीय लड़की जो अब महिला हो गई है उस ने सपना देखना छोड़ दिया है। वह उसे लौटा देती है। यह दो बेमेल सपनों को एक साथ खूबसूरती से कहने की कहानी है।

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  5. बड़ा मार्मिक,दिल को छूने वाला चित्रण..,कहानी मध्यम वर्ग के वातावरण में पनप रही मानसिकता का शानदार तरीके से वर्णन किया गया है ,जो कहानी पढने के बाद पाठक को कुछ चरित्रों के बारे में और उनकी मानसिकता पर सोचने को मजबूर कर देती है.
    आपका स्वागत है ,हमारी शुभकामनाएं सदा आपके साथ है .. मक्
    फुरसत में हमारे म्युझिकल ब्लोग्स पर अवश्य पधारें .
    http://youtube.com/mastkalandr

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  6. बहुत मार्मिक, यथार्थ-बोध कराती कहानी. बधाई.
    अरे! आपने भी शब्द-पुष्टिकरण लगा रखा है?

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  7. सुंदर कहानी पोस्‍ट करने के लिए आभार .. हिन्‍दी चिट्ठा जगत में आपका स्‍वागत है .. उम्‍मीद करती हूं .. आपकी रचनाएं नियमित रूप से पढने को मिलती रहेंगी .. शुभकामनाएं !!

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  8. एक विशाल समूह का जीवन चित्र सहज और अति प्रभावी ढंग से उकेर दिया गया है....
    इस वर्ग के लगभग समस्त मनुष्य की यह जीवन गाथा है....और इस त्रासदी से निकलने का कोई रास्ता नहीं.....

    तीशा के माध्यम से मध्यमवर्गीय सोच और कल्पना को भी बड़े ही प्रभावशाली ढंग से चित्रित किया गया है.

    अत्यंत प्रभावशाली लेखन...पढ़वाने के लिए बहुत बहुत आभार...

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  9. alkasaini10:20 AM

    aapka prayaas bahut hi sraahiniye hai keep it up

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  10. प्रभावशाली लेखन..

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