प्रतिबिम्ब

'प्रतिबिम्ब' कहानी कहानीकार का 'दु:ख अपरिमित' कहानी संकलन में संकलित हुई है. यह कहानी पहले नब्बे के दशक में ओडिया की प्रमुख साहित्य पत्रिका 'प्रतिबेशी' में छप कर आयी थी. यूँ तो सरोजिनी जी की सारी कहानियां पाठक को अभिभूत कर लेती हैं, पर इस कहानी में वृद्धत्व के अकेलेपन का मार्मिक चित्रण पाठकों को अनायास ही प्रभावित कर लेता है.

प्रतिबिम्ब

जब वह पहुँचे थे, तब नीपा अपनी दैनिक दिनचर्या में काफी व्यस्त थी। एक हाथ में उसके टोस्ट था, तो दूसरे हाथ में पानी का एक गिलास। डाइनिंग-टेबल के पास खडी होकर, वह किसी भी तरह टोस्ट को गटक लेना चाहती थी। इस प्रकार उसने सुबह का नाश्ता खत्म कर लिया था। अब सेल्फ से चप्पलें निकाल कर पहन ली थीं, हाथ-घड़ी बाँध ली थी, नौकरानी को दो-तीन कामों के बारे में आदेश भी दे चुकी थी, सोने के कमरे का ताला भी लगा चुकी थी। अब वह सोच रही थी घर से निकल कर ड्यूटी पर चले जाना चाहिये। ऐसे हड़बड़ी के समय में शरीर की तुलना में मन कुछ ज्यादा ही सक्रिय होता है। मन के साथ ताल-मेल मिलाकर काम करते समय, कोई अगर उसे रोक देता, यहाँ तक कि अगर टेलिफोन की घंटी भी बज उठती तो उसके लिये असहनीय हो जाता। वह तुरंत ही तनाव-ग्रस्त हो जाती ।
मन ही मन वह नाराज हो जाती थी। उसकी यह नाराजगी उसके बाहरी व्यवहार में भी झलक जाती थी। कभी-कभी तो इतनी झुँझला उठती, कि नौकरानी को ही रिसीवर उठाने के लिये बोल देती थी और वह खुद अपने काम पर निकल जाती थी। ऐसा भी होता था कभी-कभी, जब खुद अनजाने में अगर रिसीवर उठा भी लेती थी, तो इधर-उधर की असंगत बातें करके जल्दी निकल जाती थी।
परन्तु वह दिन कुछ और था। दहलीज पर उनको खड़ा देखकर नीपा और बाहर निकल नहीं पाई। नमस्कार के साथ उनका अभिवादन किया। अपने कंधे पर लटके पर्स को उतारकर सेन्ट्रल-टेबल पर रख दिया और बोलने लगी-
"आइये, पधारिए।"
"क्या आप आफिस जा रही थीं ?"
"जी, जी हाँ।"
"दिवाकर घर में नहीं है क्या ?"
"बस पन्द्रह मिनट हुए हैं, आफिस चले गए हैं।"
"आपके ऑफिस का भी समय हो गया होगा, कहीं इस समय आकर आपको परेशान तो नहीं कर रहा ?"
"नहीं" नीपा हँसकर बोली।
इस ‘नहीं’ के कई मतलब हो सकते थें, जैसे उन्होने इस समय आकर कोई गलती नहीं की थी, या नीपा को कोई परेशानी नहीं थी, या लोक-लाज केहिसाब से जैसे "नहीं" बोलना ही पड़ता है, उसी भाव से उसने बोल दिया। ऐसे भी अगर देखा जाए, तो वह उनके कोई सगे-संबंधी नहीं थे और उसके या दिवाकर के बॉस भी नहीं थे। यहाँ तक कि, दोनों के परिवार वालों में भी कोई विशेष-दोस्ती के संबंध नहीं थे। इसके उपरांत भी वह कभी-कभी उनके घर मिलने आते थे, बैठकर बात-चीत करते थे, चाय पीते थे और फिर लौट जाते थे। विगत पन्द्रह सालों से नीपा उनको जानती थी। नीपा पूछने लगी-
"चाय पिएँगे ?"
"चाय बनाओगी ? आप तो ऑफिस जा रही थीं, ना ?"
"हाँ, जाना तो था। पर, चाय बना देती हूँ।"
नीपा रसोई-घर में जाकर चाय के लिये पानी गरम करने लगी। जितना जल्दी कर सकती थी, उसने चाय, चीनी और दूध एक साथ मिलाकर एक कप चाय बना दी। एक कप चाय के साथ कुछ बिस्कुटें तथा नमकीन रख दिए टेबल के ऊपर। गरम-गरम चाय उन्होंने रख दी थी टेबल पर ठंडी होने के लिये। गरम चाय उन्होंने तुरंत नहीं पी थी। मन-मसोस कर नीपा सामने के सोफे में बैठकर चाय खत्म होने का इंतजार कर रही थी।
"बच्चे दिखाई नहीं दे रहे हैं ?"
"स्कूल गये हैं। आपकी तबीयत कैसी है ?"
पूछ तो लिया, मगर बाद में उसको अफसोस होने लगा कि कहीं उसने गलती तो नहीं की। इस समय उसको बात बढाने का सिलसिला आरंभ नहीं करना चाहिए था। पहले से ही तो उसे विलंब हो रहा था। जैसे ही उनकी चाय पूरी हो जाएगी, वैसे ही नीपा वहाँ से चली जाएगी।
"तबीयत तो ठीक ही है। पर बायें पैर और कमर में झुनझुनाहट बनी रहती है।" बोलते समय उनकी जीभ तालू से लग रही थी इसलिए उनका उच्चारण स्पष्ट नहीं हो पा रहा था। वह बोल रहे थे-
"मैं गाँव छोडकर चला आया।"
"हाँ, आपके भाई-साहब ने फोन पर बताया था।"
"फोन किया था ? क्या कह रहे थे ?" वह आश्चर्य-चकित होकर पूछने लगे थे।
"आपके बच्चों को समझाने के लिये कह रहे थे।"
"कौन ? आप समझायेंगी ?"
"हाँ, ऐसा ही तो कह रहे थे दिवाकर"
वह हँसने लगे थे। चाय के साथ बिस्कुट डुबो-डुबोकर खा रहे थे तथा धीरे से चुसकी लेते हुए चाय पी रहे थे। नीपा दीवार की घड़ी की तरफ देख रही थी। घड़ी का काँटा देखते ही उसका मन व्यग्र हो उठा। आज जरुर,ऑफिस पहुँचने में विलंब हो जाएगा। फिर ठहरे स्वाँई बाबू, जरुर दो-चार बातें सुनाएँगे। कहेंगे-
"सिर्फ प्रमोशन माँगने से नहीं होगा, मिसेज मोंहंती। इसके लिये सबसे पहले तो आपको अपने समय का पक्का होना पड़ेगा, नियत समय पर आना होगा, कार्य में नियमित होना होगा। और बताऊँ, मुझे क्या मालूम नहीं है, आप मुझे न बताकर सीधे मैनेजिंग-डायरेक्टर से अपने प्रमोशन के लिए कह रही थीं।"
अब वह हाथ में कप लेकर चाय पीने लगे। उनका हाथ कमजोरी से काँप रहा था, इसलिये कप भी हिल रहा था। नीपा को मन ही मन बड़ा खराब लगने लगा। चेहरे पर पसीने की बूंदे भी छलक आईं। उसने अपने पर्स का चेन खोल कर रूमाल निकाला और मुँह पोछने लगी। काम का बहाना कर रसोई-घर के भीतर चली गई। फिर कुछ समय बाद बाहर लौट आई। तब तक उन्होंने चाय पी ली थी, मगर वह उठने का नाम नहीं ले रहे थे। यह देखकर नीपा से रहा नहीं गया और वह बोलने लगी,
"लग रहा है आप थके हुए हैं, आप थोड़ा-सा यहाँ विश्राम कर लीजिए। आफिस में मेरा जरूरी काम है, मुझे जाना होगा। मेरी टेबल पर एक महत्वपूर्ण फाईल आई हुई है। उसको आज ही मैनेजिंग-डायरेक्टर के पास भेजना होगा। तो, मुझे जाने की अनुमति दें।"
"ठीक है, मैं भी जा रहा हूँ।"
"कहाँ जाएँगे आप ?"
"कहाँ जाऊँगा ?" वह हँस दिये थे।
"आप कहीं मत जाइए। आप यहीं रूक जाइए। दिवाकर दोपहर में खाने के समय घर आते हैं। आपसे भेंट भी हो जाएगी। साथ ही साथ, आप दोनों लंच भी ले लीजियेगा। ठीक है, अब मैं जाऊँ ?"
वह सेन्ट्रल-टेबल पर रखे अखबार को उठाकर पढ़ रहे थे। नीपा बरामदे से अपनी स्कूटी निकालकर आफिस जाने की तैयारी कर रही थी। तब भी वह वहीं पर बैठे हुए थे। नीपा को उनको ऐसे अकेले छोडकर जाना अच्छा नहीं लग रहा था। मगर उसके अलावा उसके पास कोई चारा भी नहीं था। नीपा सोचने लगी कि कुछ समय बाद घर का काम निपटाकर कामवाली भी चली जाएगी, फिर वह घर में बिल्कुल अकेले बैठे रहेंगे। इसलिये उसे घर में ताला नहीं लगाना चाहिए। सूने-घर में अकेले बैठकर वह क्या करेंगे ? नीपा कल्पना करने लगी कि घर में वह अकेले चुपचाप बैठे हैं। एक ही अखबार को आरंभ से लगाकर अंत तक, ऊपर से नीचे तक दो-तीन बार पढ़ चुके हैं। यद्यपि ड्राइंग-रूम में टेलीविजन है, मगर उन्होंने टेलिविजन को चालू तक नहीं किया है।
बुढ़ापा आने पर मनुष्य का यह हश्र हो जाता है ! उनके पास समय की कोई कमी नहीं है। यह अनन्त समय, क्या सिर्फ मृत्यु की चिंता में बीत जाएगा ? अथवा एक गाय की भाँति अपनी पुरानी स्मृतियों की जुगाली करते-करते पूरा समय पार हो जाएगा ? दोपहर को दिवाकर हर दिन की भाँति जरूर घर आएँगे। माइक्रोवेव में खाना जरूर गरम करेंगे। अपने सुख-दुख की बातें करेंगे। दिवाकर के पास तो कहने के लिये कुछ भी नहीं होगा, वह तो सिर्फ श्रोता बनकर सुनते रहेंगे।
यह अलग बात है, आजकल वह नीपा के घर पहले जितना नहीं आते थे। साल में एकाध बार आकर कुशल-क्षेम पूछकर चले जाते थे। मगर नीपा को यह अच्छी तरह से याद है कि जब वह शादी करके नई-नई आई थी, वह सप्ताह में प्रायः एक-दो बार आ ही जाते थे। एक कप चाय लेकर पीते-पीते एक घंटा, उससे भी ज्यादा दो घंटे तक बैठ जाते थे गप-शप करने के लिए।
उनकी गप्पों में घर-परिवार या बाल-बच्चों के बारे में तनिक भी चर्चा नहीं होती थी, वरन् सिर्फ राजनीति से संबंधित बातें होती रहती थीं। तत्कालीन जितने नामी-धामी नेता थे, उनके गुण-अवगुण, उनके अँधेरे-उजाले, सभी पक्षों पर विस्तारपूर्वक बातें करते थे। कभी-कभी नीपा भी अपना काम-धाम छोड़कर उनकी बातें सुनने के लिये बैठ जाती थी। राजनीति में ऊँची पहुँच रखने के बावजूद भी वह निर्वाचन में कभी खड़े नहीं हुये थे। वह दूसरे नेताओं की तरह भी नहीं थे, जो मौके का फायदा उठाकर अपने काम बना लेते थे। एक बार नीपा को उनके घर घूमने का सौभाग्य मिला था। वहाँ उसने देखा बैठने के लिये बिछी हुई थी- बिना किसी बिस्तर के रस्सी वाली खाट। इस खाट के अलावा कुछ भी नहीं था। पास में थी पत्थर की मूरत बन बैठी एक अधेढ़-उम्र की औरत। सुख-दुःख से परे, अविचलित भाव-भंगिमा से ताक रही थी शून्य की तरफ। वह उनकी धर्म-पत्नी थी।
दस, बारह, चौदह और सोलह साल के कुछ बच्चे आँगन में इधर-उधर घूम रहे थे। कोई कोयले की सिगडी जला रहा था, तो कोई बरतन माँज रहा था। इनमें से कोई एक बच्चा मेहमानों के सामने दो कप चाय रखकर चला गया था।
बाद में नीपा को पता चला था कि उनकी पत्नी का दिमाग खराब हो गया था, इसलिये उनको भारी-भारी दवाईयाँ खानी पड़ती थी। इन्हीं दवाईयों की वजह से धीरे-धीरे वह इतनी निष्क्रिय हो गई थीं मानो वह जिंदा लाश हों। बच्चे आधे-दिन होटलों से आलू-चॉप या वड़ा मँगाकर खाते थे क्योंकि कई दिनों तक उनके पिताजी वहाँ नहीं रहते थे। और माँ का तो कहना ही क्या ? वह तो जिंदा होते हुए भी निर्जीव अवस्था में थी। उस दिन के बाद नीपा कभी भी उनके घर नहीं गई थी। बच्चे खुद ही अपना संघर्ष करते-करते अपने पाँव पर खडे हुये थे। अखबार में विज्ञापन के माध्यम से उन्होंने अपना जीवन-साथी भी चुन लिया था। एकाध बार दावत पर गई थी, नीपा उनके घर।
चार-पाँच साल हुए होंगे, उनके व्यापारी लड़के ने पुराना घर तुडवाकर नया आशियाना बनवाया था।उस समय तक भी वह भुवनेश्वर में ‘एम.एल.ए क्वार्टर’ में रहते थे। इस कारण से उनके साथ कभी भी मुलाकात नहीं हो पाती थी। पुनः जब निर्वाचन का समय आया, तो वहअपने अँचल को लौट आए थे। कभी-कभार रास्ते में उनसे मुलाकात हो जाती थी, पर वह इतने व्यस्त नजर आते थे कि बात करने का वक्त भी नहीं मिल पाता था। अक्सर उस समय वह किसी न किसी राजनैतिक व्यक्ति से घिरे रहते थे।
वैसे भी दिवाकर उनका कोई लंगोटिया दोस्त नहीं था, इसलिये भुवनेश्वर से आने के बाद वह उनके घर मिलने भी नहीं आए थे। लेकिन इस बार उनकी पार्टी का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रत्याशी हार गए थे और उनको भुवनेश्वर जाने की जरुरत नहीं थी। अब कहाँ जाते ? मियाँ की दौड़ मस्जिद तक। इस छोटे से शहर से अपने घर तक वह सीमाबद्ध होकर रह गए थे। इसी दौरान उनका सबसे छोटा बेटा भी जवान हो गया था। बहुत ही बदमाश था। कालेज की पढाई बीच में छोड़कर दिनभर पान की दुकान पर बैठा रहता था। वह उसको खूब समझाते थे। प्रिंसिपल से विनती कर एक बार फिर से कालेज में दाखिला दिलवा दिया था। वह कालेज तो जाने लगा था, मगर बुरी संगत में फँसकर गाँजे व दारू का नशा करने का आदी हो गया था। रास्ते में जब भी दिवाकर से भेंट होती तो अपने छोटे बेटे की हरकतों के बारे में जरूर बताते। दिवाकर उनको समझाने का प्रयास करता था।
"आपने कभी भी अपने जीवन में बच्चों के भविष्य के बारे में तो सोचा नहीं, अब क्यों इतना परेशान हुए जा रहे हैं ?"
वह हँसते-हँसते कहते थे, "ठीक है। सब बच्चे अपने बलबूते पर धीरे-धीरे खड़े हो गए हैं। मेरा छोटा बेटा नहीं हो पाया। इसी बात का मुझे दुःख लग रहा है।"
घर-संसार में इससे बढ़कर और क्या चिंता हो सकती है ? उनके छोटे वाले बेटे ने जैसे हठ पकड़ ली थी कि वह दुबई जाएगा ही जाएगा। उसके लिये रूपये-पैसों की व्यवस्था कहाँ से करें ! वीसा-पासपोर्ट के बारे में किसी को चिन्ता करने की जरूरत नहीं थी। ये सब कहीं से जुगाड़ किए जा सकते हैं, वह भलीभाँति जानता था। वैसे भी वह लड़का रोज पच्चीस-तीस रुपये माँगकर ले रहा था, और रूपये देते-देते वह थक गए थे। हर प्रकार के नशे का वह आदी हो गया था। उनके दिमाग में यह भी आ रहा था कि यह लड़का बाहर जाना चाहता है, तो भले ही जाए। दुनिया भर के लोग वहाँ जाकर कुछ न कुछ काम करते ही हैं, यह भी जाएगा तो अपना पेट पाल ही लेगा, परन्तु उनके सामने सबसे बड़ी समस्या यह थी कि जाने के लिये इतना सारा रूपया कहाँ से लाया जाएगा। वह सोच रहे थे कि बाकी तीन बेटों से कुछ-कुछरुपये माँगकर छोटे बेटे को दे देंगे। वह सोच रहे थे कि आसानी से रूपये मिल जाएँगे। मगर ऐसा नहीं था। उतनी सहजता से रूपयों का जुगाड़ नहीं हो पाया था। बड़े दो बेटों को इस बाबत चिट्ठी लिखी थी, उसका जवाब नहीं आया था। फोन भी किया था उनको, मगर उनका जवाब सुनकर वह हताश हो गए थे। बडे बेटे के अनुसार उसको चौक में चाय की दुकान खोलनी चाहिए। मँझले बेटे का कहना था, दुबई जाकर वह क्या करेगा ? उसको कहिये कि वह खेती-बाड़ी करे। तीसरे बेटे के क्रोधी स्वभाव को वह अच्छी तरह जानते थे, इसलिये उससे तो बिल्कुल भी नहीं माँगा। उनके पास और कोई रास्ता नहीं था। अपनी एक जमीन बेच दी थी- पचास हजार में और इस धन-राशि को छोटे-बेटे को अपनी इच्छापूर्ति के लिये दे दिया था।
रूपये लेकर छोटा बेटा कुछ दिनों के लिये अंतर्ध्यान हो गया था। दो महीने के बाद लौटा था, पहनकर मैली पोशाक, बिना तेल के उलझे बाल, उस पर पिचका हुआ चेहरा। जब कोई दुबई की बात पूछता था, तो हर किसी को नई-नई कहानी सुनाता था। "रूपयों का क्या हुआ ?" पूछने पर नाराज होकर झगडने लगता था। छोटे बेटे की इस करतूत से वह पूरी तरह से टूट गए थे। मगर उनका दुख छोटे बेटे के लिए कुछ भी नहीं था। वह हर रोज पूर्ववत् धमकी-चमकी देकर कुछ न कुछ रूपये माँगकर ले जाता था। रूपये नहीं देने से घर का सामान जैसे घड़ी, साईकिल, टेपरिकार्डर आदि बेच देता था। उसके इस व्यवहार से तंग आकर, ज्येष्ठ व्यापारी भाई पुश्तैनी घर छोडकर दूसरी जगह किराए पर मकान लेकर रहने लगा था। पुश्तैनी घर में रह गए थे केवल एक निर्जीव-सी नारी, एक बूढ़ा इंसान और उनका एक नालायक बेटा। उनका छोटा बेटा दिन भर बाहर घूमता रहता था और रात को चुपचाप घर में आकर सो जाता थ। दिन भर कहाँ था ? खाना खाया अथवा नहीं ? पूछने की भी उनकी हिम्मत नहीं होती थी। इसलिए एक दिन उन्होंने तय कर लिया कि एक मटका पानी तथा थाली में रोटी-सब्जी डालकर उसके कमरे में उठने से पहले ही रख दिए जाएँ। इतनी भीषण गर्मी के दिनों में कैसे सोता होगा ? यही सोचकर उनको नींद नहीं आती थी, क्योंकि उस लडके ने अपने कमरे का टेबल फ़ैन बहुत पहले ही बेच दिया था। उनका मन बहुत ही दुखी होने लगा था। इसलिए एक सीलिंग-फ़ैन खरीदकर उसके कमरे में फिट करवा दिया था। मगर एक दिन उन्होंने देखा कि वह सीलिंग-फ़ैन भी वहाँ से गायब हो गया था। इस बार वह खुद को रोक नहीं पाए थे। बेटे को पूछने लगे थे,
"सीलिंग-फ़ैन किसे दे दिया ? कितने रूपयों में ? मैंने तो यही सोचकर खरीदा था कि तुमको गरमी लगती होगी। और तुमने तो एक ही महीने में उसे पार कर दिया।"
बेटा बहुत ही क्रोध भरे स्वर में बोला था,
"आप मुझे हाथ-खर्च तो देते नहीं है। अगर नहीं बेचूँगा तो हाथ-खर्च के लिये पैसा कहाँ से आएगा?"
वह गुस्से से आग-बबूला हो गए थे, मगर उन्होंने नील-कंठ शिव की भाँति गुस्से का सारा जहर अपने अंदर ही पी लिया। एक दो रोज तक बेटे की तरफ देखा भी नहीं, मगर फिर तीसरे दिन से उनका मन उसको देखने के लिये छटपटाने लगा था। कुछ नहीं तो, एक हाथ-पंखी लाकर उसके कमरे में रख दी थी। उसके कमरे में कुछ भी नहीं था, रस्सी की खटिया और हाथ-पंखी को छोड़ कर। कुछ दिन बीतने के बाद फिर एक दिन उन्होंने देखा, उनका छोटा बेटा सब्बल लेकर खिड़की तोड़ रहा था । उनसे यह देखकर रहा नहीं गया और पूछने लगे-
"खिड़की क्यों निकाल रहा है ?"
"खिड़की को बेचूँगा।"
"तुम क्या कंगाल हो गए हो ? घर की खिडकी तोड़कर बेचोगे ? कितने रूपये चाहिए तुम्हें ?"
उस लड़के ने उनकी बात को अनसुना कर दिया और अपने काम में लगा रहा। कुछ उपाय न पाकर वह सीधा थाने चले गए। यही सोचकर कि पुलिस आकर धमकाएगी तो शायद डरकर खिडकी तोडने का काम बंद कर देगा। मगर पुलिस ने उनको ‘यह घर का मामला है’ कहकर समझा-बुझाकर घर लौटा दिया। घर लौटकर उन्होंने देखा कि खिड़की की जगह एक टूटी हुई दीवार उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। अब से वह उसके कमरे को बाहर से ताला लगाते थे, कहीं ऐसा नहीं हो जाए कि दूसरा कमरा भी सुरक्षित न रह जाए। इसके बाद से छोटा बेटा उसी टूटी खिड़की के रास्ते से आता-जाता था। रात के अँधेरे में घर घुसता था, और सुबह होते ही निकल जाता था। एक दिन किसी बात को लेकर उनका छोटे बेटे के साथ जोरदार झगड़ा हो गया था। उसी दौरान वह मूर्छित होकर जमीन पर गिर पडे थे। यह देखकर छोटा बेटा खिडकी से भाग गया यह कहते हुए ‘बुढ़ापे में भी बहाना बनाने से बाज नहीं आते है !’ आस-पडोस के लोग उनको उठाकर अस्पताल ले गए थे। अपनी दुर्दशा के बारे में सबको इतला भी कर दिए थे, परन्तु कोई भी उन्हें देखने नहीं आया था।
शहर में किराए पर रहने वाले तीसरे बेटे ने लोक-लज्जा के मारे अपने पिताजी की सेवा कुछ दिन तक जरूर की थी। इस वजह से वह मृत्यु के दरवाजे तक जाकर पुनः इस संसार में लौट आए थे। उनका इस प्रकार लौट आना अपने बुरे दिनों को बुलाना था। अगर मर जाते तो शायद अच्छा होता ! जिस प्रकार से दोनो देशों की सीमा पर खड़े रहने से जो दुर्दशा होती है, ऐसा ही हाल उनका था। न इधर के, न उधर के, न तो संसार को छोड़ पाए थे, न ही उनको यहां शांति मिल पाई थी। जरा-व्याधि की कंबल ओढकर वह बैठे तो बैठे ही रहे।
ऐसी ही बीमारी की अवस्था में, एक दिन काँपते हुये वह नीपा के घर आए थे। उनका चेहरा कांतिहीन लग रहा था जैसे घिसे हुए पुराने सिक्कों की तरह दिख रहे हों। बात भी स्पष्ट रूप से नहीं कर पा रहे थे। वह दिवाकर के सामने अपना दुखडा सुना रहे थे। नीपा रसोईघर में व्यस्त थी। वह सोच रही थी, क्या कोई और सुनने वाला नहीं मिलता है उनको ? जो इतनी दूर से पैदल चलकर आते हैं अपना दुख-दर्द सुनाने. अचरज की बात तो यह है कि दिवाकर तो उनकी कभी भी, किसी भी तरह से, सहायता नहीं करते हैं। फिर भी क्यों आते हैं ?
वह कहते थे, "संसार में कोई किसी का नहीं है। बड़े बेटे अमिय के पास रहने की सोच रहा था, तो वह कह रहा था कि आप मुंबई जैसे शहर में नहीं रह पाएँगे। यहाँ काफी परेशान हो जाएँगे। मँझले बेटे के घर में पाँच दिनों तक रूका था, मगर किसी ने मुझसे बात नहीं की, न बेटे ने, न बहू ने। बड़ा ही खराब लग रहा था, इसलिए छोड़कर चला आया। रही छोटे बेटे की बात, वह क्या बोलता है जानते हो, आप मर क्यों नहीं जाते हैं ? आपके मर जाने से धरती का एक बोझ हल्का हो जाएगा। मैं तो आपको मार भी देता, मगर पुलिस मुझे अंदर कर देगी। एक आदमी को सुपारी दे देता तो किसी गाड़ी के चक्के के नीचे दबाकर आपका काम तमाम कर देता। मगर सुपारी देने के लिये मेरे पास दस-पन्द्रह हजार रूपये नहीं हैं। अच्छा सही-सही बताओ तो दिवाकर, क्या मैं सचमुच इस संसार के लिए बोझ बन गया हूँ ? मैं मरना चाहता हूँ, पर चाहने से तो मौत भी नहीं आती है। आत्म-हत्या करने की मुझमें हिम्मत नहीं है।"
उस दिन उनकी बातें सुनकर नीपा का हृदय हाहाकार करने लगा। उसका मन बहुत उदास हो गया था। उनकी इस मुलाकात के तीन-चार दिन बाद, नीपा और दिवाकर की बाजार में उनके व्यापारी लड़के से भेंट हो गई। दिवाकर उससे कहने लगा,,
"तुम अपने पापा को अपने साथ क्यों नहीं रखते हो ? वह इधर-उधर भटक रहे हैं। रहने के लिए एक कोठरी भी नहीं है। तुम्हारा छोटा भाई उनको बहुत सता रहा है। और इतनी उम्र में वह जाएँगे भी कहाँ ?"
"मेरे पास वह नहीं रह पाएँगे। मेरी पत्नी के साथ उनकी पटती नहीं है ।"
"क्यों ?"
"उनको पता।"
"अरे ! तुम तो हो, तुम्हारी पत्नी के साथ नहीं पटने से भी क्या है ? उनको समझा-बुझाकर घर ले आओ, और इधर अपनी पत्नी को भी थोडा-बहुत समझा दो।"
"आप भी कैसी बाते करते हैं ? दूसरे भाइयों का कुछ कर्त्तव्य नहीं बनता है क्या ? बड़ा भाई तो कन्नी काट रहा है, मँझला भाई हमारे ही शहर में मकान किराये पर लेकर रह रहा है। वे दोनों क्यों नहीं रखते हैं ? पापा को जब हृदयाघात हुआ था, तब भी उनको फुर्सत नहीं थी देखने आने की। पापा को केवल फोन पर समझा रहे थे कि खाने-पीने में क्या-क्या सावधानी बरतनी है ? पापा, क्या सिर्फ मेरे ही हैं ? उनके कुछ भी नहीं हैं ? और ऐसा उन्होंने मुझे दिया भी क्या है ? जब मैं छोटा था, तब मेरा बचपन बीता अध-पगली माँ के साथ। कई दिन तक होटल से आलू-चॉप, वडा खाकर मैं स्कूल जाता था। एक दिन प्रधानाध्यापक ने मेरे पापा को स्कूल बुलाया था। मगर वह एक महीने तक स्कूल नहीं गए। प्रधानाध्यापक ने मुझे बुलाकर क्या कहा था, जानते हो ? छोडिए, बीती हुई इन बातों को। यहीं नहीं, एक बार एक अनजान आदमी हमारे घर आया था। मुझे देखकर पूछने लगा था क्या यह आपका बेटा है ? क्या नाम है उसका ? पापा तुरंत उस आदमी के सामने मुझे पूछने लगे थे, तुम्हारा नाम क्या है ? उस दिन मुझे ऐसा लगा था मानों किसी ने मेरे गाल पर जोरदार तमाचा मार दिया हो ! उनके पार्टी-आफिस में चाय बेचने वाले लड़के से अल्प-सूद पर दस हजार रूपये मैंने उधार लिए थे। उन्हीं उधार पैसों से मैंने यह दुकान खोली थी। पाई-पाई जोड़कर, बड़े ही कष्ट के साथ वह ऋण अदा किया था और जी-तोड मेहनत कर इस दुकान को इतना आगे बढ़ाया है।"
उनके बेटे की ये सब बातें सुनकर, उसका भद्र-व्यवहार देखकर नीपा व दिवाकर तनिक भी क्रोध नहीं कर पा रहे थे। वे लोग चुपचाप वहाँ से चले आए थे।
बहुत दिनों के बाद वह फिर आए थे हमारे घर। इसी आफिस समय पर। क्या मदद कर पाती नीपा ? क्यों आए थे वह ? अपने तरह-तरह के दुखों की कहानी सुनाने के लिए। उनको ड्राइंग-रूम में ऐसे बैठाकर चले जाना उचित नहीं था। उनको भी नीपा के साथ-साथ चले जाना चाहिए था। इधर-उधर की सारी बातें सोचने पर नीपा को लग रहा था उनके पास कुछ भी काम नहीं है। थोड़ी देर बैठेंगे, अखबार के पन्नों को पलटेंगे, ज्यादा होगा तो कुछ झपकी लगा देंगे, नहीं तो फिर अपने अतीत के बारे में सोचेंगे। तब तक तो दिवाकर भी आ जाएँगे। उसके बाद दोनों साथ बैठकर खाना खाएँगे, गप्पे हाकेंगे। और फिर जब दिवाकर के आफिस का समय होगा, तो शायद उनको रास्ते में कहीं छोड देगा।
आज नीपा वास्तव में आफिस में लेट से पहुँची थी। ऑफिस पहुँचते ही, चपरासी शिव पहले से ही उनका रास्ता रोक कर खड़ा था।
"मैडम, पाणी बाबू बहुत समय से आपका इंतजार कर रहे हैं ?"
"हाँ"
"मैडम, अपना रूपया नहीं लेंगी। नहीं तो, मेरी पाकेट से फिर से खर्च हो जाएगा।"
"कौनसा रूपया ?" आश्चर्य से नीपा ने पूछा।
"भूल गईं ?"
"अरे ! जल्दी बताओ न, कौनसा रूपया ?"
"अक्टूबर के महीने में आपने जो मुझे उधार दिए थे।"
"अरे ! सच, मैं तो भूल ही गई थी।"
"अच्छा रखिए, रखिए। आप तो भूल गई थीं, आपके पास तो बहुत पैसा है। हम गरीब लोग, कहाँ भूल पाते हैं ?"
चपरासी की यह बात नीपा को अच्छी नहीं लगी। गरीब शब्द उच्चारण करते समय ऐसा लग रहा था, मानो उसका कुछ अलग ही अर्थ निकल रहा हो। जो भी हो, जब वह अपने केबिन के पास गयी तो वहाँ पाणी बाबू को खड़ा देखकर समझ गई थी कि शिव के पाकेट में रूपया कहाँ से आया ? पाणी बाबू ने नीपा को सिर झुकाकर नमस्ते किया। और अधीनस्थ की भाँति हँसने लगे थे। फिर धीरे से एक लिफाफा उनकी तरफ बढ़ा दिया।
"देखिये, पाणी बाबू आप तो मुझे पहले से ही जानते हैं ? ये सब चीजें मुझे कतई पसंद नहीं है। आप पहले अपना लिफाफा यहाँ से उठाइए। जहाँ इसकी जरूरत है, वहाँ उसे दे दीजिए।" पाणी बाबू लिफाफा नहीं ले रहे थे। नीपा सीधे जाकर अपने कम्प्यूटर के पास बैठ गई।
"थोड़ा देखिएगा, मैडम।" लिफाफा उठाते हुए पीछे से बोले थे पाणी बाबू। पाणी बाबू के चले जाने के बाद, नीपा टेबल पर रखी फाइलों को पढ़ने लगी। बीच-बीच में अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को शीशे की दीवार में से देख रही थी। एक बार शिव को बुलाकर डाँटा भी। फिर डर के मारे दबे पाँव मैनेजिग-डायरेक्टर के चेम्बर में गई। और जब वहाँ से लौटी, तो उसको तीन अन्य काम भी दिए गए थे। वह इस बात को अच्छी तरह समझ गई थी कि अगले सप्ताह जो वह छुट्टी पर जाना चाहती थी, अब उसके लिए संभव नहीं होगा। उसका मन दु खी हो गया था । वह अपनी किस्मत और नौकरी को कोसने लगी और कम्प्यूटर में काम करने में इतनी लीन हो गई कि उसे पता भी नहीं चला कि लंच का समय बीत चुका। आफिस के दूसरे लोग लंच लेने के बाद अपनी-अपनी जगह पर लौट आए थे। उसने बिना मन से अपने बैग में हाथ घुसाया, तो पता चला कि उसमें टिफिन नहीं था। वह आज टिफिन लाना भूल गई थी। चपरासी को भेजकर सामने वाले ठेले से कुछ फास्ट-फूड मँगवा लिया, मगर उसे भी खाने की इच्छा नहीं हो रही थी। स्वाँई बाबू ने उसको दो बार अपने चेम्बर में बुलाया था। स्वाँई बाबू उसे टूर पर भेजना चाहते थे। टूर पर जाने से नीपा को घर चलाने में दिक्कतें आती थीं, इसलिए टूर का नाम सुनने से उसे डर सा लगता था। स्वाँई बाबू को नीपा की यह कमजोरी मालूम थी, इसलिये कुछ भी हो जाने से हर बार टूर की बात उठा देते थे। स्वाँई बाबू नीपा की दक्षता के बारे में इतना बढ़ा-चढ़ाकर बोलते थे कि मेनेजिंग-डायरेक्टर भी टूर के लिये उसके नाम का प्रस्ताव पारित कर देते थे। अतः टूर पर जाने के लिये वह बाध्य हो जाती थी।
स्वाँई बाबू के चेम्बर से लौट आने के बाद नीपा दुख और गुस्से से उफनने लगी थी। इधर कोने में बैठी हुई नंदिता यह सब दृश्य देख रही थी। वह हँसती हुई उसके पास आ गई और टेबल के ऊपर चाऊमीन का पैकेट देखकर पूछने लगी, "क्या तुम आज टिफिन लाना भूल गई ? क्या चाऊमीन बाहर के खोमसे से मँगवाया है ? लंच के समय हमारे पास क्यों नहीं आई ? क्या आज मियाँ-बीवी के बीच कुछ अनबन हो गई है ? मैने देखा तुम स्वाँई बाबू के चैम्बर से आ रही थी तो तुम्हारा चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था। मैंने सोचा, चलो देख आऊँ। जरूर कुछ न कुछ सुनाया होगा, स्वाँई बाबू ने। "
कितनी जल्दी नंदिता ने, नीपा की दिनचर्या को अपने संक्षिप्त भाषण में कह डाला ! उसको देखकर नीपा को लग रहा था, काश, वह भी नंदिता की तरह चालाक होती ! नीपा नंदिता को दो कारणों से पसंद नहीं कर पाती थी, पहला कारण वह उसके परमशत्रु स्वाँई बाबू की एक नंबर चमची थी, दूसरा कारण वह उससे उम्र में छोटी तथा उसके अधीनस्थ काम करने वाली होने के बावजूद भी ओछे मुँह -"तू-ताम " से ऐसे बातें करती थी मानों उसकी सखी हो। नीपा ने चाऊमिन पैकेट मोडकर डस्टबिन में फेंक दिया और कहने लगी, "आज बहुत ही व्यस्त थी, इसलिये खाना नहीं ला पाई थी।"
"मैं यहाँ आ गई तो तुमने चाऊमिन फेंक दिया। अंडे वाला था या चिकन वाला ?" पेपर-वेट को टेबल पर घुमाते-घुमाते पूछने लगी थी नंदिता "यह स्वाँई बाबू कोई अच्छा आदमी नहीं है। बड़े ही घमंडी किस्म का, भाव-वाला आदमी है, सेडक्टिव नेचर का है, दूसरों को परेशान करने में उसे खूब मजा आता है। कुछ लोग ऐसे ही होते हैं, जो दूसरों के पीछे हाथ धोकर पड़े रहते हैं।"
नीपा ब्रांच ऑफिस के लिये एक बजट बना रही थी, इसलिये वह ध्यान-मग्न होकर फाइल पढ रही थी। बोली "छोड़ॊ न, इन बातों को।" नंदिता नीपा की तरफ से कोई प्रतिक्रिया न पाकर फिर से बोलने लगी थी "तुम्हें पता है ? आफिस के सामने एक प्रदर्शनी लगी हुई है। उसमें हर प्रकार की इलेक्ट्रोनिक वस्तुएँ किफायती दामों में मिल रही है। आफिस बंद होने के बाद तुम चलोगी साथ में ?"
"हाँ, हाँ, मुझे पता है, बाहर से देखा है, भीतर नहीं गई हूँ। देखती हूँ, सुविधा होने से चलूँगी।"
"और कितना काम करोगी ? घड़ी में साढे तीन बज गये हैं। अभी देखना, सभी लोग एक-एक करके बाहर निकलना शुरु कर देंगे।"
"मुझे और पन्द्रह मिनट लगेंगे. थोडा काम बाकी है।"
"ठीक है, पहले तुम अपना काम खत्म कर लो, फिर मेरे केबिन में आ जाना।"
नंदिता चली गई थी अपने केबिन में। नीपा पुनः अपने काम में लग गई। वह इस चीज को बखूबी जानती है, वह अच्छा काम करती है तभी तो मैनेजिंग-डायरेक्टर उसको पसंद भी करते हैं। नहीं तो, अभी तक तो तिनके की तरह कहाँ फेंकी जाती, पता भी नहीं चलता। स्वाँई बाबू के कारण या तो वह किसी कस्बे में नियुक्त होती, या फिर नौकरी से ही निकाल दी गई होती। नीपा को अपना काम खत्म करने में बीस से पच्चीस मिनट का समय लगा था। नंदिता कब से उसका इंतजार कर रही थी, नीपा के केबिन में बैठकर। बचे-खुचे कामों को निपटा कर वे दोनों बाहर निकल गई थीं। नीपा ने अपनी कलाई घडी देखी तो उसमें चार बजने में दस मिनट बाकी थे। वे दोनों आफिस से बाहर आ गई थीं।
नीपा को पता नहीं क्यों आज अच्छा नहीं लग रहा था। कहीं नहीं जाकर सीधे घर लौट जाने का मन हो रहा था। फिर भी वह प्रदर्शनी देखने गई थी। प्रदर्शनी में इलेक्ट्रानिक चीजों को देखते-देखते एक सुंदर-सी इलेक्ट्रानिक घड़ी की तरफ आकर्षित हो गई थी। इस इलेक्ट्रानिक रिस्ट-वाच में नीपा ने लाइट जलाकर देखा, अलार्म दबाकर चेक किया, उसमें उसने अपना टेलिफोन नंबर सेव करके भी देखा। इस प्रकार वह घडी के साथ कुछ समय तक खेलती रही। यह देखकर नंदिता बोली थी "ले लो, बहुत ही सुंदर है यह घडी !" नीपा के पास पैसे तो थे, जो शिव ने उसे लौटाए थे। वह घडी खरीदना चाहती थी, मगर उसने वह घडी नहीं खरीदी। उस क्षण उसे लग रहा था, अगर वह घड़ी के बदले एक सांइटिफिक-केलकुलेटर खरीदती, तो बेटे के काम आता। जिसके लिये बेटा कई दिनों से कह रहा था। खरीद कर ले जाने से वह खुश हो जाएगा। उसका तो अपनी पुरानी घडी से ही काम चल जाता है। ज्यादा शौकीन होने से क्या फायदा ? यही सोच-विचारकर नीपा ने उस कलाई-घडी को रखकर दूसरे काउंटर से बेटे के लिए केलकुलेटर और बेटी के लिए बैटरी संचालित नाचने वाली गुडिया खरीद ली थी। प्रदर्शनी से बाहर निकलकर वे दोनों कुछ दूरी तक एक साथ गए, फिर आगे से अपना-अपना रास्ता पकड लिया।
घर पहुँचकर उनको ड्रांइग-रुम में बैठा देखकर आश्चर्य चकित हो गई थी।
"अरे ! आप अभी तक यहीं हैं! "
नीपा की बात सुनकर वह बुरी तरह से सिकुड गए, उठकर खडे हो गए थे। क्या नीपा ने कुछ खराब कह दिया ?
"घर खाली था, इसलिये छोड़कर नहीं जा पाया। यहाँ ताला था, मगर चाबी किसको दूँगा ? समझ नहीं पाया।"
"मतलब ! दिवाकर के साथ आपकी मुलाकात नहीं हुई ?"
"नहीं, वह तो घर नहीं आए।"
"हे भगवान ! आप तब से...., सॉरी, एक्सट्रमली सॉरी ! बहुत कष्ट हुआ होगा आपको ? बहुत बोर हो गए होंगे ? क्या करें, हमारी दिनचर्या ही कुछ ऐसी है। बैठिए, भोजन करके जाइएगा, सुबह से कुछ भी नहीं खाया होगा। मैं जल्दी ही कुछ नाश्ता बना देती हूँ। नाश्ता जरूर करके जाइएगा।"
"नहीं, नहीं, मैं जा रहा हूँ।"
"सुबह से कुछ भी नहीं खाया है, भूख लग रही होगी ?"
"आजकल भूख कहाँ लगती है ?" वह हँस दिये थे।
"दिवाकर शायद किसी काम में फँस गए होंगे या कहीं काम से बाहर चले गए होंगे, अन्यथा रोज दोपहर घर आकर ही लंच करते हैं। दिवाकर ने फोन किया था क्या ?"
"नहीं, कोई फोन नहीं आया। अच्छा तो, अब मैं चलता हूँ।"
यह बोलते हुए वह गेट खोलकर चले गए। नीपा चाहते हुए भी उनको रोक नहीं पाई। पाप के भार से उसका सिर फटा जा रहा था। इससे पूर्व, ऐसी परिस्थिति कभी भी उसकी जिंदगी में नहीं आई थी। वह पछतावे की आग में भीतर ही भीतर जल रही थी। बच्चे स्कूल से लौट आए थे, उन्होंने घर के कपड़े भी पहन लिए थे। फिर भी नीपा ऐसी ही गुमसुम बैठी रही। बेटी ने पूछा था, "माँ, आज खाने को कुछ नहीं दोगी ?"
"हाँ, क्यों नहीं ? नीचे बैठो।" तुरंत उसको याद आ गया था प्रदर्शनी से खरीदी बच्चों के लिए कुछ चीजें। उनको दिखाने से पहले वह बोली थी, तुम दोनों पहले अपनी आँखे बंद करो, फिर देखो, तुम्हारे लिये मैने क्या- क्या नए उपहार खरीदे हैं ?
‘दिखाओ-दिखाओ’ कहकर वे दोनो उसके पास आ गए थे। बैटरी संचालित गुड़िया दे दी थी बेटी के हाथ में, और वह साइन्टिफिक केलकुलेटर पकडा दिया बेटे को। दोनो बच्चे खाना भूलकर खेलने लग गए थे। नीपा ने टेबल पर गरम नाश्ता रख दिया।
"बहुत हो गया बच्चों, आओ अब खाना खा लो।"
नीपा ने खुद भी घर के कपडे पहन लिए थे। अभी भी बच्चे खेल में मग्न थे। पाँच बार बुलाने के बाद, बच्चे टेबल के पास आए थे तथा खाना खाने लगे थे। बेटा थोडा-बहुत खाकर उठ गया था। खाने में था वही सुबह का दाल-भुजिया और वहीं सुबह की बासी सब्जी।
"और, मैं खा नहीं पाऊँगा।"
भैया की देखा-देखी बेटी भी खाने की टेबल से उठ गई थी।
नीपा ने उन दोनो को अपने पास बुलाया, कुछ प्रलोभन भी दिखाया तो कुछ गुस्सा भी किया। अंत में खीझकर बोली, "खाना है, तो खाओ, वरना मत खाओ। मैं क्या करती ! बोलो, मैं कैसे खाना बनाकर रखती ! "
बेटी ने कहा, "मम्मी, मैंने आज अपना टिफिन नहीं खाया है।"
"क्यों ?"
"रोज-रोज एक ही प्रकार का टिफिन अच्छा नहीं लगता है न। वही बिस्किट, वही मिक्स्चर कितने दिन तक खाएँगे ? तुम दूसरा कुछ बनाकर क्यों नहीं देती हो ? हमारे दोस्त कभी पराठा, तो कभी इडली तो कभी उपमा खाते हैं। हर दिन कुछ न कुछ नयी नयी चीजें लाते हैं खाने के लिए।"
"मेरे पास इतना सब बनाने के लिये समय कहाँ है ? तुमको क्या मालूम नहीं कि तुम्हारी माँ नौकरी करती है।"
"कौन बोल रहा था आपको नौकरी करने के लिए ? हमने तो कहा नहीं था ?" रुष्ट होकर बोला था बेटा।
नीपा बेटे की बात सुनकर चुप हो गई थी, क्योंकि बच्चों के मुँह से इस तरह की बाते सुनने की वह आदी थी। कभी ठीक मूड रहने पर वह उनको समझाती थी। वह कहती, "मेरे नौकरी करने से घर में ज्यादा आमदनी होगी और हम सब आराम से रहेंगे।" परन्तु इस समय वह कुछ भी समझाने के मूड़ में नहीं थी। उसको लग रहा था बच्चों के लिये इतना कुछ करने के बावजूद भी कुछ न कुछ कमी रह ही जाती है, जिससे बच्चों के प्रति उसकी अवहेलना झलकती है। यही नहीं, मानों इन बच्चों ने अपने बाल्यकाल की पतली कापी में टेढे-मेढे अक्षरों से माँ की अवहेलना को दर्ज कर लिया हो। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जायेगी, ये बच्चे बड़े होते जाएँगे। जब उनके बाल पककर सफेद हो जाएँगे, तब वह पंगु होकर लाचार बैठी रहेगी। हो सकता है, ये बच्चे धरती से आकाश तक विकसित हो जाए, परन्तु उनके सीने में बाल्यकाल में लिखी गई उस पतली कापी का पन्ना फडफड़ाते हुए पलटेगा। शायद तब वे कहेंगे
"आपने हमारे लिए क्या किया था ? हमारा बचपन ? ठिठुरती हुई ठंड में माँ की गरम गोदी हमें नसीब नहीं हुई। यह हमें अभी तक पता नहीं है, कि गोदी का सुख क्या होता है ? छुट्टियों के दिनों में भी हम घर को अंदर से बंद करके रखते थे ताकि चोर-डाकू, लुच्चे-लफंगे, साँप-बिच्छू से खुद को हम बचा सके। मगर भूत ! भूत से कौन बचाता ? भूत तो दीवार फाडकर आ सकता था, जमीन तोडकर आ सकता था। उन दम-घुटने वाले क्षणों को कैसे भूल पाएँगे माँ, जिन्हें हमने एक छोटे से क्वार्टर में अकेले में बिताया था ? बडे ही कष्टकारक दिन थे वे सब ! ज्यादातर दिन प्रतीक्षा करते करते यूँ ही बीत जाते थे। हमेशा मन में यही ख्याल रहता था कि आप कब आयेंगी ! कब घर सही-सलामत पहुँचेंगी ? रास्ते में अगर आपके साथ कोई दुर्घटना हो गई तो हम लोग क्या करेंगे ? किसके पास जाएँगे ? किसको मदद के लिए पुकारेंगे ? हम अनाथ हो जाएँगे। ऐसे घुटन भरे बचपन में हमें अकेले छोडकर इतना समय बाहर बिताना क्या आपके लिए उचित था, माँ ? जवाब दीजिए।"

Comments

  1. Anonymous11:01 PM

    बहुत ही अच्छी कहानी है,वो कहते है की TOUCHING STORY. कभी कभी हम खुद नहीं समझ पते की हम क्या चाहते है, कभी माँ का प्यार तो कभी HIGHLY LIVING STANDARD.उस चाह में हम खुद अपने माँ बाप को खो देते है, कभी अपनी सपनो से कभी अपनी पसंद को पूरा करने KE दवावो से उनको.

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  2. बहुत ही अच्छी कहानी है,वो कहते है की TOUCHING STORY. कभी कभी हम खुद नहीं समझ पते की हम क्या चाहते है, कभी माँ का प्यार तो कभी HIGHLY LIVING STANDARD.उस चाह में हम खुद अपने माँ बाप को खो देते है, कभी अपनी सपनो से कभी अपनी पसंद को पूरा करने KE दवावो से उनको.

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  3. A Wonderful Story with very absorbing and compelling narration. Once anyone starts reading, its impossible to pause half way. Simply Great !

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  4. प्रतिबिम्ब एक जीवन दर्शन है .प्रत्येक व्यक्ति के साथ अपने-अपने तरह के सुख-दुःख लगा रहता है.जो कि व्यक्ति के अपने कर्मों का प्रतिबिम्ब है. कहानी पढ़कर मुझे मेरा भूत-भविष्य नजर आने लगा.छोटी मोटी नौकरी पेशे वाली जिन्दगी में अक्सर ऐसी घटनाएँ घटती हैं.कहानी बहुत अच्छी लगी,लेखक तथा दिनेशजी को बहुत बहुत धन्यवाद ,और आशा करता हूँ इसी तरह की कहानियों की प्रस्तुती करते रहें .
    देवेन्द्र त्रिवेदी ,पटना

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  5. कलयुग में बूढे माँ-बाप की क्या अवस्था होती है ,उसका जीता जागता दृष्टांत इस कहानी के माध्यम से अभिव्यक्त होता है . बहुत ही संवेदनशील कहानी है. लम्बी जरुर है ,लेकिन उबाऊ नही है. अपने कर्मों की वजह से पुत्र किस कदर वैरी हो जाता है ! यह "प्रतिबिम्ब " के माध्यम से ही जाना जा सकता है . बहुत बहुत धन्यवाद लेखिका एवं अनुवादक महाशय को.
    राधेश्याम शर्मा ,गोरखपुर

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  6. ek sath aap kai behtar kary kar rahe hain, sahity ke vikas ke sath hi hindi ko bhi gati de rah hain, badhai

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  7. kiran agrawal9:43 AM

    a very touching story indeed

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  8. ek sur mein kahani parh dali. Sarojini ji badhai ki patra hain ki ek chhoti see par marmsparshi ghatana ko ek kahani ke roop mein chtrit kar pane mein safal rahin hain. anoovad va prastooti ke ke liye dineshji bhee badhai ke para hain. shukriya aap donon ka!

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  9. दिनेश माली जी
    ऐसे घुटन भरे बचपन में हमें अकेले छोडकर इतना समय बाहर बिताना क्या आपके लिए उचित था. इस सवाल का शायद किसी के पास जवाब नहीं हाँ मजबूरी माँ की भी हो सकती है. धन्यवाद् दिनेश जी प्रतिबिम्ब कहानी भेजने के लिए. कहानी तो सीधे दिल पे उतरती है. आशा करता हूँ आप ऐसा ही संपर्क बनाये रखेंगे.

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  10. दिनेश माली जी
    ऐसे घुटन भरे बचपन में हमें अकेले छोडकर इतना समय बाहर बिताना क्या आपके लिए उचित था. इस सवाल का शायद किसी के पास जवाब नहीं हाँ मजबूरी माँ की भी हो सकती है. धन्यवाद् दिनेश जी प्रतिबिम्ब कहानी भेजने के लिए. कहानी तो सीधे दिल पे उतरती है. आशा करता हूँ आप ऐसा ही संपर्क बनाये रखेंगे.

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  11. सरोजिनी जी ने एक बहुत अच्छी कहानी लिखी है जो हर काल का सच है!
    शुभकामनाएँ
    इला

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  12. प्रतिबिम्ब नामक शीर्षक से लिखी गई कहानी सामायिक एवं उपयोगी है .उसमे नौकरी पेशा महिलाओं के व्यक्तिगत जीवन की उलझनों ,कार्यालयों के माहौल तथा बिगड़ती सामाजिक स्थिति को प्रतिबिंबित किया गया है .जहाँ तक उपयोगिता की बात आती है तो एक लोकोक्ति है कि माँ-बाप मिलकर कई संतानों का भरण पोषण कर देते हैं किन्तु कई संतान मिलकर एक माँ -बाप का भरण पोषण नहीं कर पाते है.
    माँ -बाप कि ऎसी स्थिति को दिखाकर समाज को आत्म-निरिक्षण हेतु प्रेरित किया गया है संमाज को उधार्व्मुखी तथा कर्तव्यों एवं नैतिकता की याद दिलाने के लिए .

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  13. uttam chitran hai Dinesh ji.

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  14. मुझे आप पर गर्व है. इंजीनीयर होकर आपका साहित्य रुझान आपको लाखों में विशिष्ट बनाता है.
    आपकी शुभेच्छु
    विमला भंडारी

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  15. bahut sundar khani hai.

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  16. बड़ी मार्मिक कहानी है जो मन को छू लेती है।

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  17. alka saini9:55 AM

    dineshji ka kaam kaabile taareef hai weh bahut mehnat karte hai aisi kahaaniyaan jo real life k itna najdeek ho hume aise kaam ki praise karni chaiye aur sarkaar ko b aise writers ko help karni chaihiye.

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