छिन्न-मूल

'छिन्न-मूल' शीर्षक की यह संवेदनशील कहानी मौलिक रूप से २००२ में लिखी गयी थी. पहले ओडिया पत्रिका 'नवलिपि' में प्रकाशित हुई और बाद में लेखिका का कहानी-संग्रह 'सृजनी सरोजिनी' में संकलित हुई. अनुवाद का शीर्षक मैंने पहले 'जड़-हीन' रखा था, पर मुझे लगा 'छिन्न-मूल' भी हिंदी शब्द है तो क्यों उसका शीर्षक मूल कहानी के अनुसार न रखा जाये. अनुवाद के दौरान मैंने लेखिका की भाषा शैली को अक्षुण्ण रखने की चेष्टा की है. आशा है पाठकों को पसंद आयेगी.



छिन्न-मूल



तनिमा ने सभी के लिए कुछ न कुछ ख़रीदा था, मगर बेटे के लिए कुछ भी नहीं. बड़ी असमंजस में थी कि बेटे के लिए क्या चीज खरीदें ! फिर, बेटे की उम्र जो ठहरी सत्रह-अठारह साल. पेंट व शर्ट के कपडे या अच्छे ब्रांड वाले जूते या कलाई-घडी ? इस नाजुक उम्र के मोड़ पर, बच्चों की पसंद, माँ-बाप की पसंद से काफी भिन्न होती है. माँ-बाप की अपनी पसंद से खरीदी हुई चीजों को देखकर, वे अपनी नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं.यही कारण था कि वह अपने बेटे के लिए अपनी पसंदीदा कोई भी चीज नहीं खरीद पाती थी. एक लम्बी यात्रा पूरी कर लेने के बाद वह अपने शहर की तरफ जा रही थी. अचानक उसकी नजर पड़ी, एक लड़के पर, जो उसके बेटे के हम- उम्र था, पानी से भरे हुए पोलिथीन में रंग-बिरंगी मछलियों को लेकर जा रहा था कहीं. उसे रोक कर वह पूछने लगी,
" कहाँ से लाये हो इनको?बहुत ही सुन्दर दिखाई दे रही हैं!"
प्रफुल्लित होकर, पीछे की तरफ घुमकर अपने हाथ से इशारा करते हुए बताया था,
"वहीँ जो सामने ‘सी-वर्ल्ड’ से लिखी हुई तख्ती देख रही हो न, वहीँ से."
घर लौटने के बाद, सूटकेस खोलकर दिखाने लगी थी वह उन सब चीजों को एक-एक कर, जो खरीद कर लायी थी वह उनके लिए. बेटे की जब बारी आई, तब बेटे ने पूछा था,
" माँ, मेरे लिए?"
अलग से झोले में से तनिमा ने एक पैकेट निकाला था. "वाऊ!" ख़ुशी से झूम उठा था वह. कहाँ से लाये हो? तनिमा के हाथ से वह पैकेट छीनकर मछलियों को नज़दीक से देखने लगा था. फिर कहने लगा,
“माँ, हम एक 'एक्वेरियम' खरीदेंगे."
:" एक्वेरियम या और कुछ?" 'सोने से गढ़मण महँगी.' जानते हो एक मामूली से मामूली एक्वेरियम का दाम दो-ढाई हज़ार से कम नहीं है. फिर इसके रख-रखाव के कई झमेले अलग से! इतनी मुश्किलें मोल लेने से क्या फ़ायदा? मैं खरीदी इसे अपने शौक से कि तुमको पसंद आयेगी, अ़ब तुम इसके लिए बात को और खींच रहे हो जो एक्वेरियम खरीदने की बात करते हो?"
"तब आप क्यों लायी हो?" गुस्सा से बोला था वह, "मछली क्या कोई गुब्बारे जैसी चीज है, जो एक-आध घंटा खेलने के बाद फुस्स हो जायेगी."
अपने वैलेट में से एक छोटा सा पैकेट निकाली थी तनिमा, इस पैकेट में लाल-नीले रंग का मछ्लियों का दाना था.
:" लो, यह तुम्हारी मछ्लियों का भोजन."

मछ्लियों को एक बड़े से जार में रखा गया था. पानी में तैरती हुई मछलियाँ बहुत ही खुबसूरत दिखाई दे रही थी. कुछ काले-पीले रंग की चितकबरी मछलियाँ, तो कुछ थी सुनहरे रंग की चमकीली मछलियाँ और कुछ थी गहरे-लाल रंग की मनमोहक मछलियाँ. सभी मछलियाँ अलग-अलग नाम से जानी जाती थी. अतिशीघ्र बेटे को इन मछलियों से प्यार हो गया. अगर पानी जरा-सा भी मैला हो जाता था, मछलियों का सुन्दर चमकीला रंग साफ़ दिखाई नहीं देता था. तुंरत ही वह जार के अन्दर से पानी को बदल देता था.
मछलियों के घर आये हुए तीन-चार दिन हुए थे, कि बेटे को बाहर हॉस्टल में पढाई करने के लिए जाना पडा था. जाते-जाते कई बार यह कहते हुए गया था,
" मेरी इन मछलियों का ख्याल रखना, यह मेरी सबसे बड़ी अमानत है"
ऐसे भी तनिमा को अपने घर के काम-काज की कोई कमी नहीं थी, उस पर यह एक अतिरिक्त कार्य जुड़ गया था.

बेटे के प्रस्थान करने के साथ ही साथ जिन्दगी में उठा-पटक का सिलसिला शुरू हो गया था. अब जिन्दगी में शान्ति नहीं थी. हर-क्षण बुरी चिंताओं और आशंकाओं से भयभीत रहती थी तनिमा और उसका बेटा. तनिमा को तो ऐसे लग रहा था, मानो उसके दिल में किसीने 'टाइम-बम' फिट कर दिया हो वह किसी भी क्षण फट सकता था, और उसके बसे-बसाये घर संसार को बुरी तरह से तहस-नहस कर सकता था. केवल तनिमा का ही नहीं, बल्कि महेश का भी बुरा हाल था. दिन भर अपनी-अपनी नौकरी में व्यस्त रहने के बाद, घर लौटकर टेलीफोन की प्रतीक्षा में बैठे रहते थे. जैसे ही टेलीफोन की घंटी बजती थी, दोनों एक ही साथ समानांतर रखे हुए रिसीवरों को उठा लेते थे एक अजनबी डर और आशंका से कि कहीं बेटे का फ़ोन तो नहीं! कई महीनों से सिर्फ चिंताये ही चिंताये सता रही थी. जैसे ही फोन का रिसीवर उठाते, वैसे ही दूसरी तरफ से बेटे का रुदन भरा स्वर सुनाई देता था. इस संसार के उन कँटीले रास्तों का अच्छा-खासा अनुभव हो गया था तनिमा व महेश को, कितनी मुश्किलों का सामना करते हुए पार किया जाता है यह रास्ता!
बेटा जब बारहवीं कक्षा का छात्र था, तब उसके पते पर एक पत्र आया था. बेटे के साथ-साथ वे लोग आश्चर्य-चकित हो गए थे. सपनों की दुनिया का सौदा करने वाली उन संस्थानों को कैसे पता चल गया था, उनके बेटे के पते के बारे में? एक छोटे से शहर की उच्च-माध्यमिक विद्यालय की बारहवीं कक्षा का वह छात्र, जिसकी दुनिया फैली हुई थी केवल उसके अपने छोटे से शहर से लेकर ग्रीष्मावकाश में छुट्टी बिताने अपने मामा के घर तक, बस! पक्षियों के बढ़ते बच्चों की तरह समय के साथ बेटे के कँधे भी चौडे हो रहे थे, बाँहों की मांसपेशियाँ सुदृढ़ हो रही थी. कभी-कभी अपना शर्ट खोल कर दिखाता था वह माँ को,
"ये देखो, मेरी ताकत ! मेरी मजबूत मांसपेशियाँ !"

बेटा अब किशोर होकर दुनिया के योग्य बन गया है, उसको उडान भरने के लिए यह क्षितिज भी कम पड़ेगा, सोच रही थी तनिमा. अब घर में बाँध-कर रखना मुश्किल था उसको.. इस बात को वह खुद भी जान चुका था, बल्कि वह तो खुद भी सपने देखने लगा था शहरों की चमचमाती दुनिया के बारे में.
बारहवीं की परीक्षा ख़त्म होते ही, तनिमा और महेश ने बेटे को सपनों के सौदागरों से आये हुए उस आमंत्रण की याद दिलाई.

इधर परीक्षा-जनित थकावट, उधर शिक्षकों द्वारा दी जाने वाली समय-समय पर भविष्य के प्रति जागरूकता की हिदायतें, और उससे बढ़कर स्वप्न-बाज़ार की भीड़-भाड़ में शामिल होने की आशा संजोये, कुल मिलाकर एक अद्भुत से रंग में रंग हुआ था बेटे का मन. अभी तक वह घर में सीडी लगा के दस फिल्में भी नहीं देख पाया था, न ही पुरानी क्रिकेट टीम को मैदान में एकजुट कर पाया था. तभी से तनिमा ने बेटे के लिए गद्दे तैयार करने का जुगाड़ कर लिया था. नयी बेड-शीट, नया प्लास्टिक बाल्टी-मग, नया तौलिया तथा नये-चप्पले आदि खरीद कर अपनी गाडी में लाद भी दिए थे उन्होंने.
राजधानी भुवनेश्वर में सभी चीजें आसानी से मिल जाती है,यही सोच-कर उन्होंने भुवनेश्वर को स्वप्न-बाज़ार के लिए एक सही-जगह मान लिया था. दो-महीने का क्रेस-कोर्स इसके बाद थी प्रवेश-परीक्षा. भुवनेश्वर की चौडी-चौडी सडकों, लंबे-लंबे रास्तों के दोनों किनारों, सड़कों के बीचो-बीच खाली जगहों, विस्तृत चौराहों, बड़े-बड़े भवनों की प्राचीरों पर चिपके हुए पोस्टरों, अख़बारों के पन्नोंमें स्वप्न-बाज़ार की दुकानों के विज्ञापन नज़र आते थे. बस, फर्क इतना ही था कोई पुरानी दुकान थी तो कोई नयी दूकान. सभी का एक ही दावा था कि उनकी दूकानों से बिकने वाले सपने भोर की नींद के साथ-ही-साथ चूर नहीं होते. इन मामलों में तो वे इतने सिद्धहस्त थे कि कहना ही क्या! तनिमा और महेश ने पाँच हज़ार की कीमत वाले स्वप्नों को आरक्षित करवा लिया था अपने बेटे के लिए.
बेटे का मन था कि वह डाक्टरी पढ़े. सपनो के सौदागर कह रहे थे,
"मेडिकल कॉलेज में सीट मिलना थोडा मुश्किल है. बहुत कठिन परिश्रम की जरुरत पड़ती है. परीक्षार्थियों में प्रतिस्पर्धा भी बहुत है. आप तो जानते ही हैं ओडिशा में मेडिकल की सीटें काफी कम है. फिरभी किसी न किसीको तो दाखिला मिल ही जाता है. फिर हम किसलिए हैं? हम हैं न. "
उनकी बात सुनकर महेश कहने लगा,
" हम तो अपने ज़माने में किसी कोचिंग-वोचिंग को जानते भी नहीं थे. मेरे बड़े भाई तो 'प्री-प्रोफेशनल' पास करते ही मेडिकल लाइन में चले गए थे."

उनकी यह बात सुनकर स्वप्नों के सौदागर मुस्कुराते हुए चुप हो गए थे. आखिरकार बेटे को एक स्वप्न-विक्रेता की हॉस्टल में अकेला छोड़कर जाते समय, तनिमा का खूब रोने का मन कर रहा था. बोलने लगी थी,
" कैसी हालत में रखते हैं बच्चों को ? देखो! एक बड़े हॉल को प्लाई की पतली दीवार बनाकर छोटे-छोटे कमरों में बाँट दिया है.उसको कोई घर कहेगा ? एक लड़के के लिए केवल पांच फुट गुना छः फुट वाली जगह . हवा आने जाने का भी रास्ता नहीं है. अभी से तो गरम से भाप निकल रही है अन्दर से, तो गर्मी के दिनों में क्या हालत होगी? कैसे रह पायेगा कोई? फिर खाना-पीना सामने झोपडी वाले ढाबे से. देखने से ही, बड़ा अस्वास्थ्यकर लग रहा है. "
"मात्र दो-तीन महीने की तो बात है " कहकर बात को बदल दिया था महेश ने. वे लोग लौट आये थे अपने नौकरी-पेशे वाले शहर को, भुवनेश्वर से चार-सौ किलो मीटर दूर. जैसे ही घर में पाँव पड़ा ही था, कि बेटे का फ़ोन आया था. बहुत धीरे-धीरे उदास मन से बोला था बेटा,
" माँ, यहाँ कुछ अच्छा नहीं लग रहा है. घर की याद बहुत सताती है"

“नया-नया ऐसा लगता है बेटे, धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा. तुम तो केवल खूब मन लगाकर पढाई करना." समझा रही थी तनिमा, " अगर कहीं अच्छे कॉलेज में दाखिला मिल जाये तो सभी चिंता-फ़िक्र खत्म हो जायेगी जिन्दगी भर के लिए. तब तक के लिए तो थोडा बहुत कष्ट सहना पडेगा बेटा."
बेटे ने हामी भरते हुए फ़ोन काट दिया था.
अगले दिन सुबह-सुबह फिर टेलीफोन की घंटी सुनकर नींद टूट गयी थी उनकी. इतनी सुबह बेटे की आवाज सुनकर घबरा गयी थी तनिमा,
" क्या हुआ, सब कुशल-मंगल तो है न? इतनी सुबह-सुबह कैसे फ़ोन किया ? "
बेटा उस तरफ से बोला था,
" माँ, मुझे कक्षा में जाने की इच्छा नहीं हो रही है. टेस्ट परीक्षा में मेरे अच्छे मार्क्स नहीं आये हैं."
"धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा, चिंता मत करो.”
और कुछ पूछने से पहले ही उसने फ़ोन काट दिया था, मानो नाराज होकर उसने मुहँ फेर लिया हो. शाम को फिर एक बार फ़ोन आया था बेटे का,
" मुझसे कुछ भी नहीं होगा, माँ! मेरे तो आज भी टेस्ट में अच्छे मार्क्स नहीं आये हैं. भगवान जाने, कहाँ-कहाँ से सवाल पूछते हैं ये लोग, समझ में भी नहीं आता. इन लोगों ने जो-जो ख्वाब दिखाए थे, वे सब निरे-झूठे हैं. उन्होंने आप के सामने ही कहा था जो भी पढाई की बातें समझ में नहीं आएगी, डरने की कोई जरुरत नहीं है. सुबह से शाम तक हमारे एक्सपर्ट टीचर बैठे रहते हैं, कभी भी बच्चे आकर अपनी समस्या को पूछ कर समझ सकते हैं. लेकिन मैं तो केवल एक सवाल को पूछ-पूछकर थक गया, कोई भी तो समझाता नहीं है. कोई सुनता भी नहीं है, जबकि कार्यालय में खाली बैठे गप्पे हांकते रहते हैं."
"तुमको इतनी जल्दी किसी पर भी टीका-टिप्पणी नहीं करनी चाहिए. इसके अलावा, कितने अंक तुम्हे मिले हैं, यह कोई बड़ी चीज नहीं है. आज अगर पेपर ख़राब हुआ है, तो कल वही पेपर अच्छा हो जायेगा. कुछ दिन रहकर तो देख. फिर जो कुछ तुम बोलोगे, मैं सही-सही मान लूंगी." असंतुष्ट लहजे से बोली थे तनिमा अपने बेटे को.

केवल एक हफ्ता भी नहीं हुआ होगा, बेटे का बार-बार फ़ोन आने से वे लोग बुरी तरह से झुँझला गए थे.सुबह एक बार तो, दोपहर को फिर एक बार. रात को एक-दो बार, कभी-कभी तो तीन-चार बार फ़ोन कर लेता था वह. लेकिन, इस बार उसने फ़ोन पर पढाई के बारे में कोई शिकायत नहीं की थी. कहने लगता था,
" सुबह-सुबह मन बहुत उदास रहता है, पता नहीं क्यों, भुवनेश्वर के लोग बड़े ही अपरिचित और निष्ठुर हृदय के लगते हैं! शाम के समय मैं वाणी-विहार चौक चला जाता हूँ. हमारे शहर की तरफ जाने वाली सभी बसें यहाँ पर रूकती हैं, माँ. तुम जानती हो, हमारे शहर के लिए यहाँ से प्रति दिन छः बसें चलती हैं. जब भी अपने यहाँ की कोई बस वाणी-विहार चौक पर रूकती है, तो मन होता है कि तुंरत मैं भी उस बस में बैठ कर तुम्हारे पास आ जाऊँ. मैं जानता हूँ कि, तुम्हे गुस्सा आ रहा होगा, यह भी जानता हूँ कि तुम्हारा मन दुखी हो रहा होगा कि मैं पढाई की तरफ ध्यान क्यों नहीं दे रहा हूँ."
क्या उत्तर देती तनिमा इस बात का ? बेटे के इस दुःख के सामने हृदय से आने वाले सारे उद् गार भस्मीभूत हो गए थे. तनिमा को तो ऐसा लग रहा था, मानो उसके सुरक्षित-स्वप्नों ने अभी से ही पिघलना शुरू कर दिया हो. समझाती थी,
“ भुवनेश्वर में तुम अकेले नहीं हो, बेटा. सभी जगह, चारो कोनों में हमारे रिश्तेदार भरे पड़े हैं. तुम्हे किसी भी प्रकार की कोई भी दिक्कत होने से उन्हें खबर दे देना. बस, दौड़कर चले आयेंगे तुम्हे मिलने के लिए. और तो और हमारा खुद का भी घर है वहाँ."
"घर ? बेटा हंस दिया था, फिर कहने लगा था, " सिर्फ दीवार और छत रहने से घर क्या घर बन जाता है माँ? वहां तुम हो? पापा हैं ? हमारे घर के सामान हैं?"

दूसरे दिन बेटी ने नींद से उठकर पहले देखा था उस जार को. उसमें एक मछली मरी पड़ी थी. एक "मछली मर गयी?" घर का सारा काम काज छोड़कर भागे-भागे आई थी तनिमा, और जार में, हाथ डाल कर निकाली थी उस मरी हुई मछली को. काले-पीले रंग वाली उस मछली के सिर पर सिन्दूरी-लाल रंग, कितनी खुबसूरत दिख रही थी वह ! मर गयी? बड़े चंचल नटखट स्वभाव की थी वह मछली. जब वह तैरती थी ऐसा प्रतीत होता था, मानो तरह-तरह के रंगों को बिखेरती जा रही हो. एक लाल रंग की मछली हर समय उसके पीछे क्यों दौड़ती रहती थी, सोचकर तनिमा मन ही मन दुखी हो जाती थी. दो-तीन दिन से वह उस मछली को देख रही थी, उस मछली ने तैरना छोड़ दिया था. जार के शीशे की दीवार पर हर समय अपने सिर से टक्कर मार रही थी. ऐसा लग रहा था जैसे वह उस शीशे की दीवार को तोड़ कर, बाहर आने के लिए आतुर हो. मछली की इस व्यग्र-बेचैनी ने तनिमा को भीतर से झकझोर-सा दिया था.उसे तो ऐसा लगने लगा था, मानो वह काँच की दीवार पर नहीं, बल्कि उसके हृदय की दीवार पर अपना सिर फोड़ रही हो. वह बार-बार चेष्टा कर रही थी कि मछली दीवार पर सिर फोड़ना छोड़ दे. मगर वह असफल रही. अंत में वह मछली मर गयी. तनिमा का हृदय शोक के आँसूओं से भीग गया.
उसी दिन, भरी दुपहरी को जब एसटीडी का फुल चार्ज लगता था, बेटे का फ़ोन आया था,
" माँ. मैं घर लौट आऊँगा, पापा को लेने भेजो."
"क्यों लौट आओगे? ऐसा क्या हो गया अचानक ?"
" मैं अपने घर में पढाई करके प्रवेश-परीक्षा दूंगा. यहाँ की पढाई मुझे बिल्कुल ही अच्छी नहीं लग रही है."

बेटे की इन बातों को सुनकर चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा दिखाई देने लगाथा तनिमा को.महेश के हाथ में रिसीवर देकर, वह बैठ गयी थी सोफे पर. कितनी दृढ़ता थी बेटे की इन बातों में! बिना कुछ तर्क-वितर्क किये महेश राजी हो गए थे और कहने लगे थे,
"ठीक है, मैं आ रहा हूँ, तुम अपना सारा सामान बांध कर तैयार रखना."

सिर्फ सात दिनों के बाद ही बेटा लौट आया था स्वप्न-बाज़ार से. पांच-हज़ार रुपये के बदले में खरीद कर लाया था, स्वप्न विक्रेताओं के स्टांप लगा हुआ बैग और कुछ अभ्यास प्रश्न-पत्र, इतना ही.
बेटे के आने के बाद घर में फिर से पहले जैसी चल-पहल लौट आई थी , पर तनिमा को हर-चीज पर चिडचिडाहट लग रही थी. बात-बात में वह वह बेटे पर गुस्सा करने लगी थी. लेकिन महेश पूरी तरह शांत था, कहता था,
"लौट कर आ गया तो आ गया, इसमें ऐसा क्या हो गया? उसमें इतना दुःखी होने की क्या बात है?"

तनिमा धीरे-धीरे बेटे के पॉँच-हज़ार वाले घाटे को भूलने लगी थी. जार के अन्दर मछलियाँ तैर रही थी. सिर्फ तैर ही नहीं रही थी, बल्कि एक दूसरे के पीछे-पीछे भाग खेल भी रही थी. इसी बीच, कुछ और मछलियाँ खरीद कर ले आया था बेटा, पास वाले शहर से.मरी हुई मछली, अब और तनिमा के हृदय के अंदर टक्कर नहीं मार रही थी. बेटे को लेकर अपने सपने बुनना छोड़ दिया था तनिमा ने.

आकस्मिकतायें ही जीवन का गुरुत्वाकर्षण-बल है, जिससे जीवन बँधा हुआ है. तनिमा को उस दिन इस बात का अहसास हुआ, जिस दिन उसके बेटे ने प्रवेश-परीक्षा में अच्छे अंक हासिल कर एक तकनीकी महाविद्यालय में दाखिला पा लिया था. हालांकि, मेडिकल की पढाई का सुयोग खो देने की वजह से बेटे के मन में कुछ दुःख जरुर था, पर अच्छी ब्रांच मिल जाने से दुःख के वह बादल भी शनैः-शनैः छँट गए थे.

एक बार पुनः बेटे का घर छोड़ने की प्रस्तुति शुरू हो गयी थी. मन के अंदर व्याप्त था एक भय. बेटा बाहर में टिक पायेगा तो? आशा और आशंका लिए, महेश ने बेटे को छोड़ दिया था हॉस्टल में. अभी वाला हॉस्टल पहले वाले की तुलना में लाख गुना अच्छा था. गद्दी वाले बिस्तर, टेबल, कुर्सी,टीवी, टेलिफोन, एक्वागार्ड, इंटरनेट आदि सभी प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध थी इस हॉस्टल में. डर था तो बस रैगिंग का. घर छोड़ते वक्त तनिमा ने कहा था,
" और ज्यादा तुमको घर में नहीं रख पायेंगे बेटा, जैसे भी करके वहां रहने की कोशिश करना."
बेटा बहुत खुश था, उसे अपनी एक मंजिल मिल गयी थी. कहने लगा था,
" आप ऐसा क्यों कह रही हो? आप क्या अभी भी यही सोच रही हो कि मैं भुवनेश्वर में नहीं रह पाया तो क्या यहाँ भी नहीं रह पाऊँगा? यहाँ से भी घर लौट आऊँगा?"
महेश बेटे को एक नये शहर के नये हॉस्टल में रख कर कहने लगा था ,
" हॉस्टल तो बहुत अच्छा है, पर वहां पढाई का बिल्कुल भी माहौल नहीं है. जब भी देखो, जहाँ भी देखो, चिल्ला-चिल्ली, हो-हल्ला, नहीं तो क्रिकेट खेलने में लगे रहते हैं बच्चे."
" इसका रूम-मेट कैसा है? कितने बच्चे रहते हैं रूम में? "
महेश ने कहा था," एक रूम में तीन बच्चे रहते हैं. ज्यादा भीड़ हो जायेगी, सोच कर इसको कोई भी अपने साथ रखना नहीं चाहते थे.हॉस्टल वार्डन के कहने से उन रूम वालों ने इसे रख दिया है."
"बाद में मुश्किल नहीं होगी तो? "
"मुश्किल कैसी ?"
"रैगिंग न हो, इसको मद्दे नजर रखते हुए नए लड़कों को एक नया ब्लाक दे दिया गया है. इस प्रकार से उनका पुराने सीनियर लड़कों से कोई संपर्क ही नहीं रहेगा. वैसे तो कॉलेज प्रबंधन भी रैगिंग न हो, इस बात को लेकर काफी जागरूक है."

यह सब बातें सुनकर आश्वस्त हुई थी तनिमा और भगवान का शुक्रिया अदा करने लगी थी.

आकाश में काले-काले बादलों की घनघोर-घटा की तरह थी वह मछली, उन घटाओं के बीचोंबीच से चमकते हुए तारे की तरह था उसका शरीर. जार के तले में सोयी थी, जैसे एक नीरव तपस्वी सो रहा हो. दूसरी मछलियाँ तैरने में मग्न थीं. कभी पानी में गोल-गोल चक्कर लगाकर खेल रही थी, तो कभी रॉकेट की तरह नीचे से उपर की ओर तैर कर खेल रही थी. मगर काले कलूटे शरीर में चाँदी की पोशाक पहनी हुई वह मछली पता नहीं क्यों किस वैराग्य के कारण एकदम चुपचाप बैठी हुई थी. तनिमा आते-जाते उसी मछली को बार-बार देख रही थी. कभी-कभी तो जार के अन्दर, एक लकडी घुसाकर उस शांत पड़ी मछली को थोडा-बहुत हिला देती थी. वह मछली थोडी-सी हिलती थी, थोडी-सी आगे जाकर दूसरी जगह पर बैठ जाती थी. क्या कारण हो सकता है, इतनी उदास हो गयी वह मछली? आते समय क्या वह छोड़ आयी है अपने प्रेमी को? या क्या वह बिछुड़ गयी है अपने आत्मीय-जनों से? मछलियों को खरीदते समय, वह एक्वेरियम वाला लड़का कह रहा था,
" मैडम, सभी वैराइटी का जोड़ा साथ-साथ ले जाइये."
"ऊहूं, जोड़े का क्या करना है?"
"जोड़ी रखना अच्छा है न? "
मुस्कराई थी तनिमा, उस लड़के का जवाब सुनकर, " मछली क्या आदमी है ?"
समुन्दर से लायी हुई वह जरीदार मछली शायद अकेली थी. इसलिए वह समुन्दर के बारे में जरुर सोच रही होगी. उस मछली की उदासीनता व अकेलापन तनिमा को चिंताग्रस्त कर देता था. हृदय के अन्दर एक अनोखे हाहाकार को अनुभव कर रही थी वह. मानो कोसों-कोसों दूर तक फैले हुए रेगिस्तान में वह अकेली हो.
बेटा नये परिवेश में था. इसलिए तनिमा रोज फ़ोन कर उसकी खबर ले लेती थी. उस दिन अकस्मात् बेटे का फ़ोन आया,
" माँ, आज एक झमेला हो गया है."
"झमेला, कैसा झमेला ?"
"हम अपने रूम में हैंगर लगा रहे थे, कि पास के रूम के लड़कों ने आकर हैंगर उखाड़कर फेंक दिये. "
"ऐसा क्यों किया?" तनिमा ने पूछा.
"हम कील ठोककर हैंगर लगा रहे थे तो उन लोगों की पढाई में बाधा पहुंची. बस. करना क्या था! आकर हमारे हैंगर उखाड़ दिये तथा मेरे रूम के एक लड़के को मारा पीटा भी उन लोगों ने."
“मार-पीट क्यों कर रहे थे?"
"उन लड़कों ने हमारे वेंटिलेटर के पास टेप-रिकॉर्डर लगाकर तेज आवाज़ में गाना चालू कर दिए थे. जोर-जोर से अपने रूम में नाच-गाना कर रहे थे."
"वार्डन-साहब को क्यों नहीं बतलाया?"
"ये बदमाश लड़के वार्डन का कहना तो बिल्कुल भी नहीं मानते हैं, यहाँ तक कि तनिक डरते भी नहीं है.”
"अच्छा ठीक, तुम किसीके भी साथ झगडा-झंझट मत करना.”
तनिमा के इन उपदेशों का प्रभाव बेटे के लिए बुरा साबित हुआ. बेटे को डरपोक, शर्मीला लड़का सोचकर सब उसे चिढाने लगते थे. जबकि कभी मार खाने वाले अपने रूम के उस लड़के को उन बदमाश लड़कों ने अपना दोस्त बना दिए थे. बेटा एकदम अकेले इन सब लड़कों के साथ मानसिक लड़ाई करते करते बुरी तरह से थक गया था.

तनिमा को याद आ गया था बेटा का बचपन, जब वह नर्सरी में पढता था, उससे बड़े कुछ चंचल लड़कों ने उसके शर्ट के अन्दर तितली घुसा दी थी. बेटा रो-रोकर थक गया था. वह पागल की तरह दुःखी दिखाई दे रहा था. तब तो तनिमा ने प्रिंसिपल के पास जाकर इस बात की शिकायत की थी. लेकिन अब बेटे की इस उम्र में किसके पास जायेगी वह?
एकदिन और दुःखी स्वर से बेटे ने फ़ोन किया था,
" मैं कैसे यहाँ चार साल पढूँगा माँ? "
"क्यों, क्या हुआ?"
"ये लड़के तो जातिवाद व प्रान्तीयवाद से ग्रसित हैं. बी.जे.बी. कॉलेज से आया हुआ लड़का यहाँ सभी का नेता है. वह जैसा बोलता है सब लोग उसीका अनुसरण करते हैं. वह जहाँ जाने के लिए कहेगा, सभी लोग वहाँ जायेंगे. एक ही साथ खायेंगे डाइनिंग हॉल में, तो एक ही साथ बाज़ार घूमने जायेंगे."
"इसमें क्या दिक्कत है? इससे तो उल्टा भाईचारा ही बढ़ता है."
"ओह! आपको तो कुछ भी समझ में नहीं आता है. ये लड़के बहुत ही अभद्र हैं.बंगाली लड़कों को देख कर ओडिया में अश्लील-अश्लील गालियाँ देते हैं.लड़कियों के हॉस्टल की तरफ दर्पण दिखाकर सूरज की किरणें डालते हैं. लड़कियों के बारे में फिजूल की बातें करते हैं."
"तकनीकी कॉलेजों में पढने वाले लड़के ऐसे ही होते हैं, बेटा.”
"मुझे यह सब चीजें अच्छी नहीं लगती हैं. वे लोग जहाँ भी जाएँ, मेरा मन नहीं होने से भी मैं क्यों इनके पीछे-पीछे जाऊँगा? "
"इतने सारे लड़के क्या इतने बड़े समूह में रह सकेंगे कभी? देखना बहुत ही जल्द यह समूह चार-पांच भागों में बँट जायेगा. "
"कुछ नहीं होगा," चिढ कर बोला था बेटा. बेटे के स्वभाव को वह बचपन से जानती थी. वह अपना सिर कलम कर लेना मंजूर कर लेगा मगर किसीके सामने अपना सिर झुकाना पसंद नहीं करेगा. इसलिए वे सब परिस्थितियाँ, उसके स्वाभिमान को रह-रहकर ठेस पहुंचा रही थी. फिर भी वह समझाने का प्रयास करती थी, " जब सब लड़के उसकी बात को मान लेते हैं, तो तुम क्यों नहीं?"
"आप कैसी बात कर रही हो? कैसे मान लूँगा मैं? ये लोग जो भी बात बोलते हैं, मैं सुनता हूँ.मगर जब मैं कुछ बोलता हूँ, तो यह लोग ऐसा नाटक करते हैं, जैसे मैंने कुछ बोला ही नहीं और उन्होंने कुछ सुना ही नहीं. कभी-कभी तो मेरी बात सुनकर ठहाका मार कर हँसते हैं, मानो मैं उनके सामने एक जोकर खडा हूँ."
" बंगाली तथा दूसरे राज्य के लड़के क्या उनके साथ रहते हैं?" पूछा था तनिमा ने.
" ऐसे तो वे अलग घूमते हैं. कभी-कभी मैं भी उनके साथ घूमने जाता हूँ.और हम स्टेशन के पास वाली चाय की दूकान से नींबू वाली चाय भी पीते हैं."
"तुमने चाय पीना शुरू कर दी?"
"हाँ, हाँ, कभी-कभार दोस्तों के साथ पी लेता हूँ."
"तब तो सब ठीक ही है. और परेशानी किस चीज की ?"
"उन बदमाश लड़कों के डर से ये बंगाली लड़के भी मुझे साथ ले जाना नहीं चाहते हैं."
"तब तुम अकेले ही घूमा करो.".
"क्यों ऐसे बोलती हो?"
बेटे ने गुस्से से फ़ोन काट दिया था.

विगत दो दिनों से तनिमा ने मछलियों के जार का पानी नहीं बदला था. जार का पानी मैला होकर धुंधला-सा दिखने लगा था. पानी बदलते समय उसने देखा, कि काले शरीर पर रजत-कणों के छिडकाव हुआ हो जैसे रंग वाली वह मछली, जो उदास और अकेली रहती थी, मर गयी है.न जाने कैसे उसके मुहं से अचानक निकली वह बात,
" देख रहे हो, एक मछली मर गयी है."
बेटी ने तनिमा के हाथ से उस मछली को लेकर चारों तरफ से उलटा-पुलटाकर देखा था और दुःखी मन से मिट्टी खोदकर उस मुर्दा मछली को दफना दिया था

घर-परिवार में मन नहीं लग रहा था महेश और तनिमा का. जब इकट्ठे बैठते थे तो केवल बेटे की ही बातें करते रहते थे. जहाँ कहीं होने से भी, मन हमेशा अटका रहता था टेलीफोन के पास. दिन में तीन-चार बार बेटा उनको, तो वे भी बेटे को फ़ोन कर लिया करते थे. फ़ोन के माध्यम से वे कभी अपने मन की व्यथा , तो कभी आश्वासन ,सांत्वना, आश्रय, तो कभी अपनेपन की बातें करते थे.

जिस दिन जार के अन्दर वह जरीदार चमकीली मछली मरी , उस दिन बेटे क कोई फ़ोन नहीं आया था. इधर वह उस मछली के मर जाने से उदास अनुभव कर रही थी, तो उधर बेटे का फ़ोन नहीं आने से अपने को असहाय महसूस करने लगी थी. आखिरकार उसने खुद ही अपनी तरफ से बेटे को फ़ोन लगाया .फ़ोन पर उसके किसी दोस्त ने बताया कि वह हॉस्टल के रूम में नहीं था. तनिमा ने उस दिन कम से कम दस बार फ़ोन लगाया होगा, पर बेटे से कोई बात नहीं हो पायी थी. बेटे ने कहीं किसी से झमेला न मोल लिया हो, या किसी भी तरह की समस्याओं से न घिर गया हो. पर किस को पूछेगी यह बात? उन लोगों से, जिन्होंने कभी बेटे की तरफ प्यार भरा दोस्ती का हाथ भी कभी नहीं बढाया?
जब रात को आठ बजने जा रहे थे, तभी अपने बेटे के साथ बात कर पायी थी,
" कहाँ गया था, बेटा ? दिन-भर तुझको खोजते खोजते थक चुकी हूँ."
उस तरफ से बेटा ने कहा, " तुम फ़ोन रखो, बाहर जाकर फ़ोन करता हूँ."

इधर घर में बेटी रूठ कर बैठी थी. उसकी मेट्रिक की परीक्षा में मात्र पंद्रह दिन बाकी थे. वह यूरोपीय सामंतवाद पर जानना चाहती थी., मगर तनिमा उसे अपनी व्यग्रता के कारण उसे पढा नहीं पा रही थी. खुद को दोषी अनुभव कर रही थी वह. बेटी को बोली थी.
"तुम पढाई करो, मेरी प्यारी बच्ची!. मैं भैया के साथ बात कर लेने के बाद तुमको वह पूरा का पूरा अध्याय पढ़ा दूँगी."
"तुम्हारा ध्यान तो हर समय भाई की तरफ ही रहता है, मेरी तरफ कभी भी नहीं."
"क्या बात करती हो ? भाई का दुःख क्या हमारा दुःख नहीं है ?"
फिर और एकबार टेलीफोन की घंटी बजने लगी. तुंरत रिसीवर उठा लिया था तनिमा ने. उधर से फिर बेटे की आवाज़ आयी,
"माँ ! मैं थक चुका हूँ, आत्म-हत्या करना चाहता हूँ."
"क्यों, बेटा?"वह अनुभव कर पा रही थी, वहां बेटा फूट-फूट कर रो रहा होगा, यहाँ तनिमा का दिल दुःख से भीग रहा था.
"आज दिन-भर मैं साइकिल पर घूम रहा था.हॉस्टल में एक पल भी रुकने का मन नहीं कर रहा था. घर तो नहीं आ पाऊँगा, क्योंकि आप सब दुःखी हो जायेंगे. और किसके पास जाऊँगा मैं इस अनजान शहर में? कौन मेरी जान-पहचान का है यहाँ?"
"हॉस्टल मैं तुम्हे क्या कष्ट हो रहा है?” तनिमा ने अपने बेटे से पूछा था, " तुम पहले बाहर कोई किराये का रूम लेकर रहना चाहते थे न? कोई कह रहा था की तुम्हारे कई दोस्त बाहर किराये के मकान में रहकर पढाई करते हैं.तुम भी बाहर रूम लेना चाहोगे क्या? उन लोगों से पूछो जो बाहर किराये के मकान में रहते है, क्या तुम्हे अपने साथ रखेंगे ? "
बेटे को जैसे एक नया रास्ता मिल गया. कहने लगा,
" हाँ, उन लोगों से मेरी बातचीत हुई थी. वे राजी भी हैं. पर आप लोग दुःखी हो जाओगे, क्योंकि हॉस्टल की साल-भर की फीस कॉलेज वाले पहले से ही एडवांस ले चुके हैं."
"उस बात को छोडो, कम से कम तुम शांति से रह पाओगे, वही हमारे लिए बहुत है."

दूसरे ही दिन बेटा हॉस्टल छोड़कर चला गया था बाहर रहने के लिए. तनिमा ने न तो बेटा का हॉस्टल देखा था न ही उसका हॉस्टल से बाहर का वह मकान. वह तो केवल इतना ही चाहती थी कि बेटा जहाँ भी रहे सुख-शांति से रहे. बाहर का वह मकान शहर के अंतिम छोर पर नेशनल हाई-वे के पास था.किसी व्यक्ति ने अपने फार्म-हाऊस के लिए बहुत ही बड़ी जगह घेर ली थी. उसमें एक छोटा-मोटा बगीचा भी बनाया था. इस सुनसान जगह में रहने को चला गया था बेटा , पता नहीं किस ख़ुशी से?

बाहर रहने चले जाने के एकदिन बाद फिर उसका फ़ोन आया था, " माँ ! मैं अच्छा हूँ, मेरे लिए चिंता मत करना.आप मेरी मछलियों का ध्यान जरुर रखना. आपकी लापरवाही वजह से अब तक मेरी तीन मछलियाँ मर चुकी है.बीच-बीच में पानी जरुर बदलते रहना."

बेटे की इन बातों को सुन कर तनिमा बाज़ार से खरीद कर लायी थी एक बड़ा-सा जार. मछलियों का यह था अपना नया-नया घर. मछलियाँ अपनी पूँछ हिला-हिलाकर रंगोली बनाती थीं अपने नए घर में. अंजलि-भर रंगीन सपनों जैसी थी मानो उनकी गति. तनिमा इस बार ध्यान से निहार रही थी, रंगीन मछलियों के बीच एक सफ़ेद मछली की हरकतों को. एक विधवा के नीरस जीवन जैसा वह मान ली थी अपने जीवन को. इस मछली को जब बेटे ने खरीदा था, तब भी तनिमा को वह बिल्कुल पसंद नहीं आया था. कोई सपना कभी सफ़ेद होता है क्या? सपने तो सदैव रंगीन होते हैं. फिर भी वह मछली दाना खा रही थी, तैर रही थी, उस प्रकार मानो किसी तालाब के किनारे कोई एक विधवा युवती नहा रही हो, कई नयी नवेली गाँव-वधुओं के बीच में. चूँकि वह सुन्दर नहीं दिखाई दे रही थी, इसलिए तनिमा उस मछली को कभी-कभार उस जार से निकाल के एक दूसरे जार में रख देती थी. अकेली रहकर शायद दुःखी हो जायेगी, यही सोचकर फिर उसे पहले वाले जार में उन सब मछलियों के झुँड में छोड़ देती थी.

इंजीनियरिंग कॉलेज में बेटा बिल्कुल ही एक नया ब्रांच लेकर पढ़ रहा था. लोग कहते थे भविष्य में इस कोर्स को पढने वाले लड़कों की भारी माँग होगी. नौकरी लगने में कोई दिक्कत नहीं होगी. सपने रंगीन मछलियों की तरह तैर रहे थे तनिमा के दिलमें, अपनी अपनी पूंछें हिलाकर. भले ही थोड़े-बहुत आश्वस्त हो चुकी थी तनिमा अभी तक अपने बेटे के भविष्य को लेकर. पर क्या इस उम्र में कोई कभी शान्ति से रह पाया है? बेटा जिस सुनसान जगह पर रहता है, सोचकर तनिमा का मन बहुत बेचैन हो जाता था.बीच-बीच में वहां फ़ोन करके वह अपने बेटे की सुध-बुध ले लेती थी, और कभी-कभी बेटा भी फ़ोन कर लेता था अपने कॉलेज से,
" सुबह-सुबह मन क्यों बड़ा ही उदास हो जाता है ? माँ ! रात को भी बहुत डर लगता है. मगर चलेगा. "

टेबल पोंछते समय नौकरानी ने देखा कि वह सफ़ेद मछली मरी पड़ी थी. तनिमा उस मछली को प्यार नहीं करती थी, इसलिए वह मछली मर गयी क्या? मछली की मृत्यु से उसका मन बहुत दुःखी हो गया था. देखो ! जार के अन्दर से वह सफ़ेद रंग कहाँ खो गया है? ऐसा लगता है जैसे कोई आततायी मानो छुप कर बीच-बीच में रंगों को चुरा लेता हो. मछलियाँ रोज एक-एककर मर जाती हो, ऐसी बात नहीं थी. आठ-दस दिन के अंतराल में एक-एककर मछलियों की अचानक मृत्यु हो जाना एक पहलू बन गया था क्या क्या कारण हो सकते थे?

तनिमा को तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. बेटी बोली थी,
"लगता है आज भी भईया के पास से कोई बुरी खबर जरूर आएगी."
जब-जब कोई मछली मरती थी, तब-तब बेटे के के वहां से कोई न कोई दुःख भरी खबर अवश्य आती थी. यह बात शत-प्रतिशत सत्य थी. बड़ा ही डर लग रहा था उसको , क्या हुआ होगा कौन जाने? फ़ोन करके यह बताना उसके लिए संभव भी नहीं था. तनिमा का मन बहुत ही उदास हो गया था. वह ठीक से अपना खाना भी नहीं खा पाई थी. हे भगवान्! मेरे बेटे का साथ कोई दुःखद घटना न घटे.

दिन ढल कर रात हो गयी थी,. मन धीरे-धीरे शांत होने लगा था. रात दस बजे अचानक फ़ोन आया. इस बार बेटे ने फ़ोन नहीं किया था, बल्कि बेटे के एक अध्यापक ने फ़ोन किया था, कहने लगे थे,
" आप के बेटे का एक्सीडेंट हो गया है आज शाम को चार बजे."

जोर-जोर से काँपने लगी थी तनिमा, टेलीफोन रिसीवर महेश को पकडा कर वह वहीँ पर बैठ गयी थी अपने सिर पर हाथ रख कर. बेटे की दायें हाथ की अनामिका ऊँगली कट गयी थी. बेटे को पास के हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया था. उसी रात महेश निकल गया था बेटे के पास. उसके हाथ की चोट लगी अंगुली का ऑपरेशन हुआ था और दो-चार दिन के बाद महेश अपने बेटे को लेकर घर लौट आया था.

कभी भी अंध-विश्वासी नहीं थी तनिमा. लेकिन आज वह यह सोचने को मजबूर थी, जरूर न जरूर, मछलियों के मृत्यु के साथ-साथ बेटे के बुरे दिनों का कुछ न कुछ सम्बन्ध होगा.उसने अपने मन में ही मछली और बेटे का भविष्य को जोड़ कर ताना-बाना बुन ली थी. बेटा ढाई महीने तक घर में रहा. चोट लगी अँगुली अब ठीक हो कर पहले जैसी दिखने लगी थी. ड़ॉक्टरों ने अपनी कुशलता का परिचय दिया था. बेटा ने बायें हाथ से खाने का भी अभ्यास कर लिया था. मगर इस समय तक बेटे का प्रथम सेमेस्टर की परीक्षा सिर पर आ चुकी थी. बेटा कॉलेज जाकर बायें हाथ से परीक्षा का फॉर्म भी भर कर चला आया था. बस परीक्षा के लिए चंद दिन ही बाकी थे. इसी दौरान वह मन लगाकर पढाई भी नही कर पाया था एक्सीडेंट के कारण, इसलिए खूब निराश भी था. कहने लगा था,
" मुझे लग रहा है की इस बार मैं पास नहीं हो पाऊँगा. मेरे तो एक नहीं कई पेपर बेक रह जायेंगे."

इन दिनों में तनिमा और उसका बेटा आपस में और अधिक घुल-मिल गए थे. बातों-बातों में तनिमा बेटे को उसकी सुविधा-असुविधा के बारे में पूछती रहती थी. बेटे के जाने के बाद सारी रात सो नहीं पायी थी वह.उसे लग रहा था जैसे कुछ न कुछ घट कर ही रहेगा. तनिमा का हृदय कांप उठा था. जितना भी उनके साथ घट रहा है, क्या कम था ! शहर के बाहर उस अकेले घर के बारे में सोचने से तनिमा की चिंताएँ और अधिक बढ़ जाती थी.

यहाँ रहते हुए बेटे ने एक बार कहा था,
" जब वहाँ खाना बनाने वाला कुक नहीं आता है, तो हम लोग अपने हाथों से खाना बनाते हैं. मुझे तो खाना बनाना नहीं आता है, इसलिए हमारे उस 'मेस' का सबसे सीनियर लड़का मुझे डाँटता और गाली देता है. कभी तो सीखा नहीं, कैसे बनाऊं? एक दिन जब चाय बनाने गया था, मैंने अपने हाथ जला लिए थे. इसलिए अधिकतर दिन मुझे बाज़ार से सब्जी और आटा-चावल जैसी चीजें लाने के लिए ही भेजा जाता है. "

दुर्घटना-ग्रस्त निर्बल हाथों से किस प्रकार वह भारी सामान का थैला उठाकर लाता होगा , यह सोचकर तनिमा अस्थिर-सी हो जाती थी. आधी रात में ही उसकी नींद टूट गयी थी. ज्यों ही उसकी नींद खुली, त्योंही वह महेश को जगाने का सोच रही थी, लेकिन उससे पहले वह आदतन मछलियों के जार के पास आ गयी.और देखने लगी कि जार में मछलियाँ सब कुशल है तो. छोटे से डिब्बे से मछलियों का दाना निकाल कर जार में डालने के बाद फिर वह अपने बिस्तर पर सोने के लिए चली गयी थी.

यह बात सही है, सुबह से उसे पिछले रात जैसा भारी भारी नहीं लग रहा था. बेटा अपने गंतव्य स्टेशन पर पहुँच कर फ़ोन किया था, यह कहकर कि वह कुशल-क्षेम से पहुँच गया है. सुबह चाय पीने के समय तनिमा बोली थी,
" देख रहे हो, विगत सात-आठ महीनों से इस टेलीफोन ने किस प्रकार हमारी जिन्दगी पर आधिपत्य जमा लिया है? टेलीफोन के बिना तो एक पल भी जिन्दगी कट नहीं सकती. कभी भी हमने ऐसी कल्पना भी नहीं की थी, कि हमारे इतने ख़राब दिन भी आयेंगे."
"उम्र बढ़ने के साथ साथ चिंताएं यूँ ही बढ़ जाती हैं." अखबार पढ़ते-पढ़ते महेश ने कहा था.
दोपहर को टेलीफोन की एक लम्बी घंटी सुनकर दौड़ आई थी तनिमा. शहर के बाहर वाली मकान में रहने के बाद कभी भी असमय पर बेटे ने फ़ोन नहीं किया था. क्योंकि फ़ोन करने के लिए उसे दो किलोमीटर दूर जाना पड़ता था. बेटा या तो चुंगी नाका के पास जाकर फ़ोन करता था या फिर अपने महाविद्यालय के अन्दर एस.टी.डी बूथ से.
बेटा कहने लगा था,
" माँ, मैं बहुत बड़ी मुश्किल में हूँ अभी. पापा को तुंरत भेज सकती हो?"
तनिमा बुरी तरह से डर गयी थी. पहले से ही तय हुआ था कि बेटे के जाते समय साथ में महेश भी जायेगा, क्योंकि बेटा का दाहिना हाथ दुर्घटनाग्रस्त होकर कमजोर हो गया था, इसलिए अपने साजो-सामान को उठा कर प्लैटफॉर्म तक जाना उसके लिए कठिन होगा. पर कुछ भी तकलीफ नहीं होगी, कहकर बेटा अकेले ही चला गया था.सुबह पहुँच कर उसने फ़ोन भी किया था, यह कहते हुए कि वह आराम से पहुँच गया है. और उसे किसी प्रकार की कोई तकलीफ नहीं हुई थी.
" क्या हुआ है ? पहले बताओ तो, पापा को जरूर भेजूंगी, मगर समस्या क्या है , जानने से तो?"
"जब मैं अपने पुराने वाले घर पहुँचा तो देखा कि वहां ताला लगा हुआ था. जब केयर टेकर को इस बारे में पूछा तो उसने बताया कि मेरे साथियों ने इस घर को छोड़कर एक दूसरा घर किराये पर ले लिया है. वह घर बाज़ार की तरफ पड़ता है. बड़ी मशक्कत के बाद मुझे उस घर का पता चला. लेकिन जैसे ही मैं वहां उनके पास पहुँचा, तो उन लोगों ने मेरा सारा पैसा ले लिया."
"मतलब?"
"दो महीने का बकाया भाडा, बिजली का बिल आदि."
"इसको तो देना ही था."
“कौन मना कर रहा है देने के लिए? मगर मेरा खाट बिछाने के लिए जगह रखनी चाहिए थी उनको, फिर क्यों नहीं रखी? अपनी-अपनी खटिया तो बिछा चुके हैं, मगर मेरे लिए बिल्कुल जगह नहीं रखी है. मेरा बक्सें और कपडों को एक कोने में पटक दिए हैं."
"कैसी अजीब बात है ? इन लोगों ने रहने वाले सदस्यों के हिसाब से घर नहीं लिया क्या? क्या वह घर बहुत ही छोटा है?"
“नहीं, नहीं, घर छोटा नहीं है. इन लोगों ने दो अन्य लड़कों को ला कर रखा है उस घर में."
"तू तो उनका पुराना दोस्त था न? तेरे लिए जगह रखना उचित नहीं था क्या ? तेरे साथ इतनी बड़ी दुर्घटना हुई, मानवीय दृष्टिकोण से भी तो तुझे अपने साथ रखना चाहिए था.क्या बोल रहे हैं वे लोग?"
"बोल रहे हैं तू तो दो-ढाई महीने अपने घर रह गया था.हमारे लिए उस घर का किराया देना व मेस चलाना बहुत मुश्किल हो गया था. अतः दो अन्य दोस्तों को हम बुला लाये. यहाँ रखनेके लिए. उन्होंने तो दो महीने के किराये का एडवांस पैसा दे दिया है."
"यह तो ठीक है,परन्तु तेरे लिए उन्होंने जगह क्यों नहीं रखी? इस बारे में उनसे क्यों नहीं पूछा?"
"मुझे जो- जो पूछना था मैं पूछ चूका हूँ. मुझे तो ऐसा लग रहा है यह पढाई मेरे भाग्य में नहीं है. हमारे शहर में बी.एस.सी पढना ही मेरे लिए बेहतर है."
"तू हमेशा इतना जल्दी क्यों टूट जाता है? अच्छा, मैं पापा को तुम्हारे पास भेज रही हूँ. वह कल सुबह पहुंचकर तुम्हारे रहने का कोई प्रबंध करके आयेंगे. "

तनिमा सोच रही थी, क्या सचमुच उसका बेटा पढाई कर पायेगा? तुंरत ही ऑफिस फ़ोन करके सारी बातें बता दी थी महेश को. मगर महेश दृढ़-संकल्प के साथ बोला था,
"ठीक है मैं जा रहा हूँ, कुछ स्थायी व्यवस्था करके ही आऊँगा. "

उसी रात को ट्रेन पकड़ कर चला गयाथा महेश बेटे के पास. तनिमा का मन तरह-तरह की आशंकाओं से डूबा जा रहा था. तुंरत ही वह मछलियों के जार के पास आगयी थी, यह सोचते हुए, जार में सब कुछ ठीक-ठाक है तो? और जार में सिर्फ तीन मछलियाँ ही जिंदा बची थी. वे भी बिना युग्म-वाली . एक लाल मछली, तो दूसरी लाल-नीला सम्मिश्रित रंग वाली मछली, तो तीसरी क्रोकोडाइल मछली. जार के अन्दर तीन-चार दाना डाली थी तनिमा, ताकि मछलियाँ जिंदा रहे.
रात को ठीक से नींद भी नहीं हुई थी तनिमा की. बहुत देर रात बीते आँखों में नींद उतरी थी, यहाँ तक कि शायद भोर होने वाली होगी. नींद से उठते ही वह उस जार के पास गयी थी, देखा था कि उस जार में वे तीनों मछलियाँ गोल-गोल चक्कर काट कर तैर रही थीं. चूँकि महेश बेटे के पास गया हुआ था,इसलिए बेटे के बारे में इतनी चिंता नहीं थी. मगर सुबह होने पर भी महेश का फ़ोन नहीं आया था. वे ठीक से पहुंचे भी या नहीं, तनिमा नहीं जान पायी थी. पहले तो ऐसा कभी भी नहीं हुआ था. जबभी बाहर कहीं जाते थे, तो अपनी कुशलता का समाचार पहुँचते ही दे देते थे. पहला पहर ढल चुका था. अब सूरज सिर ऊपर था. तब भी बाप-बेटे दोनों में से, किसीने फ़ोन नहीं किया था. उस दिन तो खाना बनाने का भी मन नहीं कर रहा था तनिमा का. माँ बेटी दोनों ब्रेड खाकर ही रह गयी थीं.

न किसी अखबार में, न ही किसी पत्र-पत्रिका में और न ही टीवी देखने में उनका मन नहीं लग रहा था. तनिमा बेटी को एक ही सवाल पूछ-पूछकर बोर कर रही थी. थक-हारकर वह बिस्तर पर लेटे-लेटे इधर-उधर सोच-विचार में पड़ गयी थी. तभी किसी का फ़ोन आया, घर की निस्तब्धता को चीर कर. फ़ोन था महेश का.कुछ रूखे स्वर में बोली थी तनिमा,
" सुबह से अभी तक एक बार भी फ़ोन नहीं किया? मेरी तो जान ही निकल जा रही थी."
"अभी तक बेटे के रहने की कुछ व्यवस्था नहीं हो पायी है. सोच रहा था कुछ व्यवस्था होने के बाद ही फ़ोन करूंगा."
"उसके पुराने दोस्तों के पास गए थे? "
"हाँ, गया था. यहाँ पर सचमुच जगह नहीं है."
“तुम क्यों नहीं बोले, कि बाहर के दूसरे लड़कों को अपने साथ रख लिये हैं,फिर उसको क्यों नहीं रखा ? "
"उनके साथ झगडा-झंझट करूँगा क्या? या कोई नयी व्यवस्था करूँगा?"
चिढ गया था महेश,
"बेटा फिरसे पहले वाले हॉस्टल में जाना चाहता था. मैं उसको वहां भी लेकर गया था. वहां भी उसको रखने के लिए कोई राजी नहीं हुए थे. वार्डन से भी अनुरोध किया था. उसने बेटे को बुलाकर हॉस्टल में लौट आने का कारण भी पूछा था. कहने लगा था, कि तू क्या सोच रहा है, इन तीन महीनों में यहाँ सब कुछ बदल गया होगा? तू बाहर घर लेकर रहता था पढाई करने के लिए, तो अब वहीँ रह कर पढाई कर."
थोडी देर रुक कर फिर महेश बोलने लगा था,
" मैं बेटे को लेकर प्रिंसिपल के पास भी गया था. लेकिन प्रिंसिपल के पास पुराने हॉस्टल के सभी लड़के पहुँच गए थे. वहां उन लड़कों ने मुझसे कहा था, अंकल, देखिये इसके हॉस्टल छोड़कर चले जाने के बाद, एक दूसरे लड़के ने भी उसका अनुसरण करते हुए हॉस्टल छोड़ दिया था. उनकी वजह से हमारा हॉस्टल बदनाम हो गया है. अब यह फिरसे क्यों लौटना चाहता है? जो लड़के इसको फुसलाकर ले गए थे, इसके एक्सीडेंट के बाद तो उनको इसे अपने साथ रखना नहीं चाहिए था ?"
तनिमा के धीरज का बाँध टूट रहा था. वह अधीर हो कर बोलने लगी थी,
"बोलो न, आखिर में हुआ क्या? "
महेश कहने लगा था,
"प्रिंसिपल साहेब ने कहा कि हॉस्टल में जगह खाली है तो रख दीजिये बेटे को."
"तुम बेटे के साथ बात करना चाहती हो क्या?"
बेटे को क्या सांत्वना देती तनिमा. उसका शरीर पूरी तरह से काँप रहा था. उसके बेटे को कितनी तकलीफ हो रही होगी . इधर परीक्षाएँ भी सिर पर हैं, उधर इस मानसिक हालत में कैसे पढाई कर पायेगा वह. आज तक महेश के ऊपर तनिमा का पूरा भरोसा था. मगर अब ऐसा लग रहा था मानो उसके भरोसे व आशाओं का वह बाँध टूटता ही जा रहा हो. तनिमा बेटे को पूछने लगी थी,
"बेटा खाना खाये?"
"हाँ," उदास स्वर से बोला था बेटा.,
"अभी तक मेरे रहने की कोई व्यवस्था नहीं हो पायी है, माँ. यही सोचकर घर से निकला था कि जितना भी कष्ट सहना पडेगा, सह लूंगा. मगर यहाँ आकर देखा, मेरे रहने के लिए तो थोडी-सी मिट्टी भी नसीब नहीं है. एक साल होने वाला है, मुझे कहीं भी पाँव पसारने के लिए एक जगह नहीं मिल पाई है."

तनिमा ने कल्पना कर ली थी कि बेटा दीवार का सहारा लिए हुए खडा है ,एक पाँव जमीन पर रखा है तो दूसरा पाँव घुटनों से पीछे मोड़कर दीवार से सटाकर खडा हुआ है और उसको घेर कर खड़े हैं बहुत सारे लड़के. उसको अपने प्रश्न-बाणों से घायल कर रहे हैं बार-बार. और वह खडा है एक कुख्यात अपराधी की तरह सिर झुकाकर. अपने दूसरे मोडे हुए पावँ को ज़मीन पर जैसे रखने का साहस भी नहीं जुटा पा रहा था वह.रिसीवर रख कर चुपचाप बैठ गयी थी तनिमा.
"क्या हुआ माँ?" बेटी ने पूछा था,"भईया सकुशल हैं तो? जानती हो, जार में केवल दो मछलियाँ ही हैं."
"नहीं,नहीं, तीन मछलियाँ थीं." तनिमा बोली थी.
"नहीं, मैं तो दो मछलियों को देख कर आ रही हूँ."
“मैंने सुबह देखा था तो जार में तीन मछलियाँ थीं.एक कहाँ चली गयी?"
तुंरत ही जार के पास चली आयी तनिमा.कह रही थी,
" सचमुच लाल-नीले रंग की मछली कहीं पर भी दिखाई नहीं दे रही है, कब मर गयी? तुमने छुपा कर फेंक तो नहीं दिया ?"
बेटी चिढ गयी थी,
" आप क्या बोल रही हो? नौकरानी ने तो कहीं नहीं ले लिया होगा ?"
"क्या बात कर रही हो? इतने दिनों से काम कर रही है वह, अभी तक तो कोई भी चीज नहीं ली,आज ले ली ? कैसे हो सकता है? फिर वह मछली उसके किस काम आयेगी?"

इससे पहले तो मछलियाँ मर जाया करती थीं,खोया नहीं करती थीं.शायद हो सकता है,सुबह-सुबह , मछली के जार को देखने में उसे कोई भ्रम हुआ हो. मन चिंताओं के बढ़ते बोझ से फिर भारी हो गया था. बेटा और मछली, मछली और बेटा.जैसे कि तनिमा की दुनिया में इसके अलावा कुछ और घटित ही नहीं होता हो.
बेटी चिल्लाई थी,
" माँ ! देखो,देखो, वह मछली टेबल के नीचे गिरी पड़ी है."

तनिमा ने सावधानी से देखा था उस मछली को. आस-पास कुछ चीटियाँ भी लग गयी थी. जार के अन्दर वह मछली जिस रंगीन सपने की तरह दिख रही थी, उसकी लाश वैसी नहीं दिख रही थी. मछली को पलटकर, तिरछी कर देखने से वह पूरी तरह से निस्तेज नजर आ रही थी. तनिमा को याद हो आयी, उस दिन की स्मृति जिस दिन वह मछली जार में से कूद कर टेबल के ऊपर गिरी थी, मगर वह मछली अब इतनी दूर कैसे चली गयी?ऐसा क्या कष्ट हो रहा था ? जो उसने जार में से कूद कर जमीन पर आत्महत्या कर ली . उसी समय तनिमा को अपने बेटे की याद हो आयी,
"माँ, क्यों मेरे पाँव के नीचे थोडी-सी जमीन भी नसीब नहीं होती?"

तनिमा घर के अन्दर से एक पोलिथीन की थैली लायी , उसमें भरा हुआ था कुछ स्वच्छ पानी. जार के अन्दर बची हुई दो मछलियों को निकाल कर रखी थी उसमें, और बेटी से कहने लगी,
"तुम ट्यूशन जा रही हो, उसको ले जा, आस-पास के किसी नदी-नाले में छोड़ देना, बेटी."

बेटी विस्मित हो कर देख रही थी. कुछ भी विरोध नहीं किया था उसने. तनिमा मन ही मन कह रही थी-
"तुम्हारे लिए मेरे पास कोई समुन्दर नहीं है. हे मेरे सपनो! तुमको मैं आज अब अपने से विदा कर रही हूँ, जाओ, जहाँ भी तुम्हारा मन लगे, वहीँ जाकर तैरने लगो, इधर-उधर."

Comments

  1. प्रिय भाई,

    अनुवाद देकर प्रकाशित कर आप हिन्दी को समृद्ध कर रहे हैं, लेकिन ब्लॉग में इतनी लंबी रचना पढ़ने के लिए पाठक को अतिरिक्त धैर्य की दरकार होती है. छोटी रचनाएं देने का प्रयास करें.

    धन्यवाद

    चन्देल

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  2. विजय कुमार खरद ,जबलपुर10:35 AM

    छिन्न-मूल कहानी हृदय को स्पर्श करती है ;माँ बेटे का द्वंद ,माँ की ममता का मार्मिक चित्रण किया गया है ;मछली के साथ बेटे के कष्ट की समानता इस कहानी को असाधारण बना देती है . दिनेशजी के प्रयासों से मैं इस कहानी से परिचित हो सका . आभार व्यक्त करता हूँ और आगे भी श्रेष्ठ रचनाओं के पठन की कामना करता हूँ . मेरा नमन तथा साधुवाद
    विजय कुमार खरद ,जबलपुर

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  3. आपका प्रयास सराहनीय है।अच्छी प्रस्तुति है।आभार।

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  4. sach kaha aapne....sach hamesha hi itna kadwa hota hai...kya karen..!!!!!

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  5. Jagdish Gupta7:40 AM

    यह कहानी यथार्थ के काफी नजदीक लगी. लम्बी होने पर भी रोचकता बनाये रखती है . कहानी का समापन एक समाधान की तलाश करते लगा.! अत्यंत सराहनीय प्रयास. लेखिका के साथ साथ दिनेश माली को बहुत बहुत धन्यवाद .
    जगदीश गुप्ता
    हिल टॉप कालोनी
    ब्रजराजनगर ,ओडिशा

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  6. देवेन्द्र कुमार त्रिवेदी ,पोखरा ,बिहार6:10 AM

    छिन्न -मूल" एक ऐसी कहानी है जो आज के समाज के हर परिवार के साथ जुडी हुई है ,विशेष रूप से मध्यम -वर्गीय परिवार के साथ . जहाँ शिक्षा खर्चीली है ,वहां मध्यम-वर्गीय परिवार के बच्चे अपनी इच्छा के अनुरूप शिक्षा नहीं ले पाते है तथा सीधे घर के बच्चे अवसाद के शिकार हो जाते है,यहाँ तक कि आत्म-हत्या के बारे में सोचने लगते है.लेखिका एवं रुपंतारकर को हार्दिक अभिनन्दन !
    देवेन्द्र कुमार त्रिवेदी ,पोखरा ,बिहार

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  7. सुंदर संकलन ..सुंदर कथा....अभी तो एक ही पढी ..लेकिन मन बोझिल -सा हो गया ..
    तनिमा जैसी ना जाने कितनी माताएँ होंगी..?

    आज़ादीकी अनेक शुभ कामनाएँ! आईये हम सभी मिलके इसे सुराज बनायें!

    "मेरी जान रहे ना रहे,
    मेरी माता के सरपे ताज रहे"

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    "Ek sawal tum karo" is manch pe aapka swagat hai! Mere profile pe iska link mil jayega!

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  8. माली जी,सरोजनी साहू जी के लेखन को, मेरे जॆसे हिंदी-भाषी व्यक्ति को सहज-सुलभ करवाकर,आपने सराहनीय प्रयास किया हे.धन्यवाद!

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  9. nisandeh aapka paryas sarahniy h

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  10. bada vastav chitran hai.mera beta class 8 mein hai, mainyeh bhavnaen samajh sakta hoon

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  11. Gopal Panda ,Brajrajnagar1:53 AM

    छिन्न -मूल" नमक कहानी मध्यमवर्गीय परिवार की कहानी है .,जिसमे बच्चों के भविष्य के प्रति विशेष महत्त्व दिया जाता है . कहानी में बच्चे के जीवन एवं एक्वेरियम में मछलियों के बीच तुलनात्मक प्रस्तुति बहुत ही अच्छी है .लेखक एवं अनुवादक को अच्छी प्रस्तुती के लिए बधाई !
    गोपाल पंडा ,ब्रजराजनगर

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  12. राधेश्याम शर्मा,गोरखपुर2:04 AM

    छिन्न-मूल" नामक कहानी में आजकल के छोटे परिवार के बच्चों की मनोदशा ,उनके संघर्ष,व्यवसायिक शिक्षा के प्रति माता-पिता का रुझान,प्रांतीयता का दुष्प्रभाव एवं शकुन-अपशुकन के प्रति हमारे समाज की आस्था को प्रस्तुत किया गया है .वर्तमान दौर के छोटे परिवार के बच्चे या तो कोमल सुकुमार बन जाते है या उद्दंड .
    उद्दंड बच्चे समाज में अव्यवस्था फेलाते है और सुकुमार बच्छों को अपने अस्तित्व की् रक्षा के लिए संघर्ष करना पङता है ,अन्यथा वे छिन्न-मूल बन जाते है .इस कहानी से यही शिक्षा मिलाती है की सुकुमार बच्चों में संघर्ष करने एवं घुलने-मिलने की क्षमता विकसित होनी चाहिए .
    राधेश्याम शर्मा,गोरखपुर

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  13. चिंतामणि साहू ,झारसुगुडा ,ओडिशा12:54 AM

    यह कहानी मेरे जीवन से मिलती-जुलती है बस अंतर है तो इस बात का ,कि कहानी में एक्वेरियम है और मेरे जीवन में एक गाडी. जब-जब गाडी ख़राब होती है ,तब-तब बेटा पर आपत्ति आती है. क्या यथार्थ कहानी है ,क्या कहूँ ,पढने पर आँखों के सामने पूरी तस्वीर नजर आगयी. बहुत-बहुत धन्यवाद डॉ सरोजिनीजी !
    चिंतामणि साहू ,झारसुगुडा ,ओडिशा

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  14. कहानी वाकई बहुत अच्‍छी है। लेकिन बहुत लंबी है। अभी हमने दस पन्‍ने ही पढ़े हैं। इतने में ही कहानी ने मुझे मंत्रमुग्‍ध कर दिया। सरोजिनी व अनुवादक को ढेर सारी बधाईयां।

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  15. Anonymous7:12 AM

    I am sorry: I can not read Hindi nor Sanskrit...
    even if I was in India at the Poetry Festival...

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