गैरेज
यह कहानीकार की नवीनतम कहानियों में से एक है जो ओडिया की मशहूर पत्रिका 'कादम्बिनी' में प्रकाशित हुई थी और अब तक कहानीकार के किसी भी कहानी-संग्रह में संकलित नहीं हुई है . इस कहानी में निम्न-मध्यम वर्ग के वातावरण में पनप रही 'लूम्पेन मानसिकता' का बखूबी कलात्मक चित्रण किया गया है जो पाठक को अभिभूत कर लेती है. गैरेज “कैसी हो तुम?” “ठीक नहीं लग रहा है।” वह उदास मन से बोली। यद्यपि उसके होठों पर हँसी के भाव थे, मगर चेहरे पर घोर मायूसी छाई हुई थी । वह बिल्कुल भी सहज नहीं लग रही थी। उसे देखने से तो ऐसा लग रहा था मानो आकाश से कोई अनचाहा तारा टूटकर धरती पर गिर पड़ा हो। “क्यों? क्या हो गया, जो ठीक नहीं लग रहा है ?” “मुझसे बहुत बडी ग़लती हुई है। अब मैं नहीं भुगतूँगी, तो कौन भुगतेगा ?” उसकी आँखे लाल-लाल दिखाई दे रही थी जैसे कल रात वह बिल्कुल भी सोई नहीं हो। “ग़लती?” “हाँ।” वह सोफे पर अपनी अँगुलियों को थिरकाते हुए बोलने लगी, “मैं यहाँ रहूँगी।” “मतलब?” “मैं और कहीं नहीं जाऊँगी।” तीशा मीरा की ओर देखने लगी। मीरा अपने आँचल में एक कमज़ोर निस्तेज बच्चे को चिपकाए हुए थी जो उसका बड़ा बेटा था। एक...