दुःख अपरिमित
( यह कहानी मूल रूपसे नब्बे के दशक में लिखी गयी थी. पहले ओडिया पत्रिका 'झंकार' में प्रकाशित हुई और बाद में लेखिका का कहानी संग्रह "दुःख अपरिमित" (ISBN : 81-7411-483-1) में संकलित हुई. इस कहानी का सुश्री इप्सिता षडंगी द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद कहानीकार का अंग्रेजी कहानी संग्रह "वेटिंग फॉर मान्ना" ( ISBN : : 8190695606 ISBN-13: 9788190695602) में संकलित हुआ और बाद में सुश्री गोपा नायक द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद वेब मैगजीन MUSE INDIA में भी प्रकाशित हुआ है.
यह कहानी का शीर्षक ओडिया के मध्य युगीय संत कवि भीमा भोई की चर्चित कविता से ली गयी है. कविता का हिंदी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत करने में मैं एक अद्भुत गौरव अनुभव कर रहा हूँ :
जग में केवल दुःख अपरिमित
देख सहन कौन कीजै
मेरा जीवन भले नर्क में रहे
जगत उद्धार होवे. )
दुःख अपरिमित
अगर सोनाली ने उस दिन मेरे हाथ से वह कलम नहीं छीनी होती ,तो वह कभी भी नीचे नहीं गिरी होती . उस कलम को स्कूल साथ ले जाने के लिए मेरी माँ ने मुझे कई बार मना किया था. पर कलम थी ही उतनी सुंदर , आकर्षक व उतनी ही अजीबो-गरीब किस्म की, कि मुझे अपने आप ही उसे अपने दोस्तों को दिखलाने कि इच्छा हो जाती थी. मैं हर दिन उस कलम के साथ थोडा बहुत खेलती थी. फिर खेलने के बाद उसे अलमीरा में छुपा कर रख देती थी. वह एक विदेशी कलम थी, जिसे मेरी आंटी ने मुझे उपहार में दिया था. माँ कहती थी, " बहुत ही कीमती है यह कलम. सम्हाल कर रखना ".लिखते समय कलम से रोशनी निकलती थी.
इस कलम के शीर्ष-भाग में लगी हुई थी एक छोटी सी घडी. एक बार, मैं इस कलम को प्रेमलता को दिखाने के लिए, अपने साथ स्कूल लेकर गयी थी. क्योंकि प्रेमलता को मैं जब भी उस कलम के बारे में जितना भी बताती थी , वह सोचती थी कि मैं झूठ बोल रही थी .वह कहती थी कि ऐसी तो कोई भी कलम इस दुनिया में नहीं है.. इसी कारण से मैं प्रेमलता को दिखाने के लिए अपने साथ उसे स्कूल लेकर गयी थी . स्कूल के मैदान के एक कोने में , अकेले में मैंने उसे वह कलम दिखाई थी . रिसेस में , मैं तो खेलने भी नहीं गयी, इसी शंका से कि कहीं वह कलम चोरी न हो जाये. दिखाते समय, प्रेमलता ने कसम भी खायी थी कि वह किसी को भी उस कलम के बारे में नहीं बताएगी. मगर उसके पेट में यह बात कब तक छुपती! उसने आखिरकार सोनाली को इस कलम के बारे में बता ही दिया . जैसा ही स्कूल की छुट्टी हुई , वैसे ही सोनाली ने मुझसे वह कलम देखने के लिए मांगी. पहले तो मैंने उसे देने के लिए मना ही कर दिया था.और सोच रही थी कि कितनी ही जल्दी स्कूल बस आ जाये और कितनी ही जल्दी वह अपने घर चली जाये. परन्तु उस दिन स्कूल बस को स्कूल में पहुँचने में काफी देर हो गयी थी. अक्सरतया माँ कहा करती थी कि कभी भी स्कूल से पैदल चल कर घर मत आना. क्योंकि स्कूल से घर वाले रास्ते के बीच में एक दारू की भट्टी पड़ती थी. बदमाश लोग दारू पीकर उस रास्ते में घूमते रहते थे. रास्ता भी था तो पूरी तरह से वीरान , एकदम सुनसान. अगर कोई किसी को उस रास्ते में से उठा भी ले, तो भी पता नहीं चलेगा. उससे भी बड़ी दिक्कत की बात थी, नाले के ऊपर बनी हुए लकडी के टूटे-फूटे पुल की. वह नाला कभी भी किसी के काम नहीं आता था, और वह पुल कभी भी गिर सकता था. तरह तरह के जंगली लताओं, पेड़-पौधों, कीचड़ व दलदल से बुरी तरह से भरा हुआ था वह नाला. मेरी माँ के कई बार मना करने के बावजूद भी, मैं कभी-कभी अपने दोस्तों के साथ, स्कूल से घर पैदल चली आती थी, क्योंकि स्कूल बस जहाँ तहाँ घूमते-घूमते, हर छोटे-मोटे स्टॉपेज पर रुकते-रुकते,बच्चों को उतारते-चढाते , घर पहुँचने में एक घंटा देर कर देती थी. प्रायः शाम हो जाती थी घर पहुँचते-पहुँचते. लेकिन मुझे मेरी माँ की बात मान लेना चाहिए था. मैंने पैदल आकर कोई अच्छा काम नहीं किया था. सोनाली ने मेरे हाथ से उस कलम को छीनने की कोशिश की. उसी समय वह कलम नाले में जाकर गिर गयी. कलम का उपरी भाग दूर से दिखाई दे रहा था. अगर उस कलम का उपरी हिस्सा दिखाई नहीं देता तो क्या होता? मैं केवल रोते-रोते ही घर पहुँचती, परन्तु इस दलदल में तो इस तरह से नहीं फंस जाती! उस कलम को लेने के लिए, सोनाली और मैं, दोनों ही नाले की तरफ चले गए थे तथा एक छोटी लकडी की सहायता से उसे बाहर निकलने की कोशिश करने लगे थे. सामने दिखाई दे रही कलम को ऐसे ही छोड़कर घर जाने की कतई इच्छा नहीं हो रही थी. जैसे ही मैंने नाले की तरफ अपना एक कदम बढाया, वैसे ही मेरा एक पांव दलदल में धंस गया. इसके बाद फिर जब मैंने अपना दूसरा कदम आगे की तरफ बढाया, तो दूसरा पांव भी उस दलदल में धँस गया. अब मैं उस दलदल में पूरी तरह से फँस चुकी थी. जितनी भी बाहर निकलने की चेष्टा करती, उतनी ही अधिक मैं और उस दलदल में धंसती ही जाती. देखते-देखते धीरे-धीरे कर मेरे दोनों पांव उस दलदल में एक बित्ता गहराई तक डूब चुके थे. मैं असहाय हो कर सोनाली की तरफ देखने लगी थी. सोनाली बोली , "थोडासा और आगे बढ़ जा , जाकर उस कलम को पकड़ ले." मेरे पांव तो दलदल में इस तरह फँस चुके थे मानो कि पांव के तलवों में किसीने गोंद चिपका दिया हो. "मुझे खींच कर बाहर निकालो." कहकर मैंने सोनाली की तरफ सहायता के लिए अपने हाथ फैला दिए थे. मगेर वह तो डरकर दो कदम और पीछे चली गयी,सोचने लगी की कहीं मदद करने से ऐसा न हो जाये कि वह खुद भी दलदल में डूब जाये. और वह बोलने लगी थी ," रुक,रुक, मैं जा कर किसी और को बुला लती हूँ." ऐसा कहकर वह पुल के ऊपर चली गयी थी, इसके बाद वह वहां पर दिखाई ही नहीं पड़ी.और मैं खड़ी थी, उस अमरी पेड़-पौधों से लदालद भरे उस जंगल में, जो कि उस नाले में चारों तरफ फैला हुआ था. मेरे साथ तो कभी कुछ ठीक से घटता ही नहीं है. यह अभी की बात नहीं है, मेरे जन्म के पहले से ही ऐसा होता आया है. मेरी माँ कहती थी, मैं अनचाहे, असमय में उसकी गर्भ में आयी थी. वह तो मुझे चाहती ही नहीं थी. जिस दिन से उसको पता चला कि मैं उसके गर्भ में आ गयी हूँ, उस सारे दिन तो वह दुखी मन से उदास हो कर बैठी रही. बस इतना ही समझिये, उसने अपने कोख में नहीं मार डाला था यह सोच कर कि कहीं पाप न हो जाये. मेरे जन्म से पूर्व एक ज्योतिषी ने मेरी माँ की हस्त-रेखा देख कर कहा था,"आपकी कोख से एक कन्या का जन्म होगा, जो कि जन्म से ही रोगी होगी." उसी मुहूर्त से मेरी माँ का मन बहुत ही दुखी हो गया था. अक्सरतया ज्योतिषियों का फल झूठा निकलता है, सोच कर धीरे-धीरे इस बात को वह भूल गयी थी. मगर मेरे बारे में ज्योतिषी की बात सही निकली. मेरे जन्म के समय एक विचित्र घटना घटित हुई.पेट के भीतर रह कर मैंने 'बच्चेदानी' को फाड़ दिया था. भयंकर दर्द से, मेरी माँ जमीन पर गिर कर छटपटा रही थी. मेरी माँ को तुंरत हॉस्पिटल ले जाया गया.डॉक्टरों ने कहा था की अगर थोडी सी देर हो जाती, तो मैं और मेरी माँ हमेशा हमेशा के लिए इस दुनिया से विदा हो जाते.जब हम दोनों अस्पताल में थे, तब हमारे घर में चोर भी घुस आया था.मेरी माँ अस्पताल में बिस्तर पर लेटे लेटे ही बोल रही थी की यह लड़की उनके लिए शुभ नहीं है. जैसे ही जन्म हुआ है, वैसे ही चोर घर में घुस आया.यह तो अलग बात है की वह चोर बुद्धू था, जो ड्रेसिंग टेबल के ऊपर रखे हुए असली सोने के झूमके को भूल से नकली मान कर छोड़ दिया था. और साथ लेकर गया था तो पूजा स्थल पर रखे हुए केवल पंद्रह रुपये.
पैदा होते ही अस्पताल में मैंने गहरे काले रंग की उलटी की थी. उसे देख कर मेरी माँ तो बुरी तरह से डर गयी थी.पाईप घुसा कर ,मेरे पेट में से जितना मैला चला गया था, डॉक्टरों ने सब बाहर निकाल दिया था. पेट के अन्दर पाईप घुसाने से मेरे शरीर में जीवाणुओं का संक्रमण हो गया था, और जिसकी वजह से मुझे पतले दस्त लगना शुरू हो गए थे. उस धरती पर आये हुए केवल दो ही दिन का समय गुजरा था कि मुझे जिन्दा रहने के लिए सालाइन की जरुरत पड़ी थी. उसके बाद तो कहना ही क्या,लगातार कुछ न कुछ छोटे- मोटे रोग घेरे रहते थे.
मैं तो माँ के स्तन-पान भी करना नहीं चाहती थी.माँ जितनी भी चेष्टा करती,पर मैं तो ठहरी जिद्दी, बिल्कुल भी उनके स्तनों पर अपना मुहं नहीं लगाती थी.केवल पाउडर दूध से भरी बोतल पीकर में सो जाती थी. यह सब बातें मुझे इसलिए याद आती हैं, कि हमें स्कूल में गत परीक्षा में 'ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ ए डस्टबिन' पर एक निबंध लिखने को दिया गया था. डस्टबिन क्या है यह तो मैं जानती थी, मगर ऑटोबायोग्राफी क्या है, यह मैं नहीं जानती थी.बड़ी ही मुश्किल से, मैं केवल चार
वाक्य ही लिख पाई थी.
मैंने डस्टबिन में कभी भी किसीको कचरा फेंकते हुए नहीं देखा था, इसीलिए मैं सिर्फ इतना ही लिख पाई थी कि , 'डस्टबिन कहता है - यूज मी यूज मी , बट नोबॉडी यूज इट'. मेरी माँ इस पंक्ति को सुनकर बहुत खुश हो गयी थी.फिर भी वह कहती थी कि मैंने गलती की है. ऑटोबायोग्राफी का मतलब होता है 'आत्मकथा' अर्थात अपने आपको डस्टबिन मानकर लिखना उचित था.
"बहुत ही कठिन निबंध दिया था न, माँ?"
माँ बोली थी ," कैसे कठिन ! बचपन में हमने तो बूढे बैल की आत्मकथा लिखी थी, किसान की आत्मकथा लिखी थी."
"मुझे मेरी आत्मकथा लिखने को देते तो अच्छा होता."
माँ हंस दी थी.बोलने लगी,"कितनी जिंदगी तुम पार कर चुकी हो, जो अपनी आत्मकथा के बारे में कहती हो?"
यह सुनकर मैं चुपचाप वहांसे उठकर चल दी थी.
अभी तक सोनाली किसी को बुलाकर नहीं लौटी थी. मैं दलदल में ज्यों की त्यों खड़ी थी. मुझे मच्छर काट रहे थे. मैं दलदल में अपने घुटनों तक.धंस चुकी थी. जैसे ही मैं थोडा सा हिलती, ऐसे ही मैं और नीचे की तरफ दब जाती थी. यहाँ तक कि, डर के मारे, मैं दोनों हाथों से मच्छरों को भी नहीं मार पा रही थी.
मुझे पता नहीं,मेरा नाम तितली क्यों रखा गया था? पलक झपकते ही मैं तितली की तरह एक फूल से दूसरे फूल पर उड़कर नहीं जा पाती थी. मैं तो तितली की तरह चंचल भी नहीं थी. इसलिए हमेशा घरवालों से ताना सुनना पड़ता था.सब कोई मुझे गाली देते थे. कोई मुझे आलसी कह कर गाली देता था, तो कोई मुझे गधी कह कर. जब मैं पैदा हुई थी, बोतल का दूध खत्म होते होते मैं सो जाती थी. फिर खाने के समय जग जाती थी. जब कोई मुझे हिला हिला कर झिंझोड़ता था , तब जा कर उठती थी. वरन मैं तो ऐसे ही पड़ी रहती थी.
अस्पताल में किसीने मेरा रोना नहीं सुना था.मैं दूसरे बच्चों की तरह हाथ पैर हिला हिला कर नहीं रोती थी. इसीलिए मेरी मौसी सजे-सजाये पद्य की तरह कभी राधी तो कभी गधी के नाम से बुलाती थी. अभी तक मुझे इसी नाम से बुलाती है.मेरा बड़ा भाई मुझे 'कुम्भकर्ण की बहन' कह कर पुकारता था. मुझे सोना अच्छा लगता है, बहुत अच्छा.किन्तु मेरे इस तरह सोने की प्रवृत्ति, किसी को भी अच्छी नहीं लगती थी.यहाँ तक कि मैं टीवी देखते देखते सो जाती थी, पढाई करते करते झपकी लेने लगती थी. इसलिए मुझे काफी डांट-फटकार और मार पड़ती थी. मेरी माँ डांटती थी, " यह नींद तेरा शत्रु है. इसलिए तेरी बुद्धि का विकास नहीं होता है." मेरे मस्तिष्क के सभी कपाट बंद करके रखी थी यह नींद. इसी कारण से पढाई में, मैं थोडा पीछे रहती थी. आजतक जिन्होंने मुझे पढाया है, वे कुछ ही दिनों के बाद चिढ कर मुझे गालियां देते थे, यहाँ तक कि कोई न कोई मेरे ऊपर हाथ भी उठा लेते थे.
कभी कभी मुझे ऐसा लगता था कि मैं सिर्फ गालियां और मार खाने के लिए ही पैदा हुई हूँ. मार और किसी चीज के लिए नहीं , सिर्फ पढाई के लिए. मैं काफी कुछ चीजें याद रखती हूँ, लेकिन पढाई नहीं. मेरी पढाई को लेकर माँ और पिताजी के बीच बराबर झगडा होता था. माँ पढ़ने के समय जब गुस्सा होकर मुझे मारती थी, तब पापा उनको गाली देते थे और पापा पढ़ते समय जब गुस्सा होकर मुझ पर हाथ उठाते थे, तो माँ बचाने आती थी.जब पापा मुझे गणित पढाते थे, और मुझे अगर कोई पहाडा याद नहीं रहता, तो गुस्से से आग बबूला होकर मेरे गले को अपने हाथों से दबोच लेते थे. कभी कभी तो नौ का पहाडा भी याद नहीं आता था. बार बार पापा पूछते थे," नौ सत्ता? नौ सत्ता? बोलो , जल्दी बोलो, नहीं तो मार डालूँगा." माँ रसोई घर से दौड़ कर आ जाती थी,"बोल दे बेटी, बोल दे, नौ सत्ता तरसठ." माँ की इस तरह मदद कर देने से, पापा का पारा असमान छूने लगता था और माँ से कहते थे ," तुम्हारे कारण ही यह आज तक मूर्ख है. थोडा सा भी धैर्य नहीं है तुझमे. इसके बाद मेरी पीठ पर धडाधड मुक्कों की बरसात करना शुरू कर देते थे तथा बोलने लगते थे, " अभी तक नौ का पहाडा याद नहीं है तो आगे क्या पढाई करेगी ?" तुम तो हम सभी के लिए एक अभिशाप बनकर पैदा हुई हो."
" अपनी बच्ची के लिए ऐसा बोलते हुए, तुम्हे जरा-सी भी शर्म नहीं आयी?" रसोई घर के भीतर से ही माँ कहने लगती थी.मेरे लिए उन दोनों के बीच में अक्सरतया झगडा शुरू हो जाता था.इस कारण से मुझे अपने आप पर खूब गुस्सा आता था. माँ और पापा के झगडे में हार हमेशा माँ की होती थी. पापा अपनी बड़ी बड़ी ऑंखें दिखा कर चिल्लाते थे. माँ रोती थी. तब मुझे माँ को अपने गले लगाने का मन होता था.पता नहीं क्यों, स्कूल कि किताबों कि बातें याद नहीं रख पाती थी, लेकिन मुझे ऐसे बहुत सारी दूसरी बातें याद रहती थी. बचपन में 'एम' नहीं लिख पाती थी, तब मेरी माँ ने मुझे उठा कर जमीन पर पटक दी थी. कुछ देर तक आँखों के सामने सब कुछ अँधेरा ही अँधेरा दिखाई देने लगा था. इतना होने के बाद भी मेरे मस्तिष्क कि खिड़कियाँ नहीं खुली थी. बचपन में , मेरे बहुत सारे ट्यूशन मास्टर बदले गए थे. जो भी नया ट्यूशन मास्टर आता था , माँ उसको ड्राइंग रूम में बिठा कर चाय पिलाती थी और फिर मेरे बारे में इस तरह बताना शुरू कर देती थी, मानो जैसे कोई रोगी डॉक्टर से अपने रोग के बारे में बता रहा हो. " इस लड़की की सबसे बड़ी बीमारी है की उसे अपनी पढाई बिलकुल भी याद नहीं रहती है. बचपन में जब कभी भी उसे तेज बुखार आता था तो मूर्च्छा आने लगती थी. इसलिए उसे नींद की दवाई दी जाती थी. शायद यही कारण है की उसका स्वभाव दूसरो से थोडा मंद है. यह बात दूसरी है कि , पांच साल की उम्र के बाद और ऐसा उसे कुछ भी नहीं हुआ. उसकी गणित विषय पर ठीक पकड़ है, परन्तु रटने- वटने का काम उससे नहीं होता है. आईक्यू के मामले में थोडा पीछे है. मैं तो अपनी कोशिश कर कर के थक गयी हूँ.अब अगर आप कुछ सुधार ला सकते हैं तो...."
आए हुए मास्टर कहने लगते थे," उसको अगर गणित पर पकड़ ठीक है, तो बाकी सब विषय तो आसानी से हो जायेंगे. पढ़ने-पढाने के भी अपने अपने तौर-तरीके हैं. बस अब आप चिंता छोड़ दीजिये.
उस समय मैं अपने आपको एक भयंकर रोगी की तरह अनुभव करने लगती थी,. जिस प्रकार से मेरे नानाजी की तबियत ख़राब होने पर उन्हें एक डॉक्टर से दूसरे डॉक्टर के पास , एक दवाई खाने से दूसरे दवाई खाने पर, फिर वहां से और आगे एक नर्सिंग होम में ले जाया जाता था, ठीक उसी प्रकार से मेरी भी हालत थी. नानाजी को तो कुछ ऐसा हो गया था कि उनके ब्रेन के बहुत सारे हिस्सों में खून का परिसंचरण रुक गया था. घर में सभी कह रहे थे कि उन्हें तो स्ट्रोक हुआ है.क्या मेरे भी ब्रेन में बहुत सारे जगह सुख कर रेगिस्तान बन गया है? अच्छा ,सारे रेगिस्तान तो अफ्रीका में है? एक कालाहारी तो दूसरा सहारा. कौन सा दक्षिण में है, कौन सा उत्तर में ? हर बार मैं इस बात को भूल जाती हूँ. इसीलिए स्कूल में मुझे डंडे की मार भी खानी पड़ती थी.
मेरे स्कूल में मेरे से भी पढाई में कई कमजोर छात्र हैं, लेकिन महापात्र मैडम तो मुझे ही सबसे ज्यादा पीटती हैं, गालियाँ देती हैं. स्कूल में कोई भी मुझे लायक नहीं समझते हैं. कोई भी मुझे प्यार नहीं करते हैं. .नानाजी के दवाई-खाने से नर्सिंग होम ले जाने तक, कई जगह पर स्थानांतरण होने जैसे ही मेरा भी बहुत सारी स्कूलों में स्थानांतरण हुआ है.सबसे पहलेवाली स्कूल का तो बस मुझे इतना ही याद है कि एक मोटी-सी टीचर मुझे हाथ पकड़ कर लिखना सिखाती थी, एक पन्ने के बाद दूसरे पन्ने पर. उसके हाथ छोड़ देने से मैं बिल्कुल ही नहीं लिख पाती थी. इस पर खिसियाकर वह जोर से चिल्लाकर बोलती थी, " आज मैं तुमको उस आम के पेड़ पर लटका दूंगी, जहाँ तुम्हे लाल मुहं वाले बन्दर काटेंगे." सचमुच उस आम के पेड़ पर बन्दर रहते थे और बंदरों के देखने से मेरी घिग्घी बंध जाती थी. बन्दर के दांत दिखाने से, मैं डर के मारे अपनी आँखें बंद कर लेती थी.
कभी कभी मेरी माँ दुखी मन से कहने लगती थी ," यह सब मेरी ही गलती है कि मैंने अपनी नौकरी की खातिर तुझे ढाई साल की उम्र में स्कूल में दाखिला दिलवायी ." पर जब-तब मैं उन्हें अपनी गलती का अहसास कराती और पूछती ," आपने क्यों मुझे ढाई साल की उम्र में ही स्कूल में डालने की बात सोची?"
तब वह गुस्से से लाल पीली हो जाती थी, " और मैं क्या करती? तुमको अकेली नौकरानी के भरोसे छोड़कर जाती? कभी-कभी जब मैं घर लौटती थी, तब तुम अपनी चड्डी में हग-मूत कर ऐसे ही पड़ी रहती थी. ऐसा न हो,यही सोच कर तुमको स्कूल में डाल दिया था. स्कूल में और दस बच्चों के साथ खेलोगी, तो माँ की याद नहीं आयेगी. मगर उस मिस ने तुम्हारा भविष्य बर्बाद कर दिया. मैंने उसे तुम्हे पढाने के लिए मना किया था. उसे तो केवल इतना ही ध्यान रखना था कि तुम ठीक से नियमित रूप से स्कूल जा रही हो या नहीं"
मेरी समझ में नहीं आ रहा था की मेरी माँ मेरे साथ अच्छा की था या बुरा. मैं तो अपने भाई की तरह झटपट जवाब भी नहीं दे पाती थी. और तो और, माँ पर दो मिनट से ज्यादा गुस्सा भी नही कर पाती थी. मेरी माँ बताती थी कि उसने मेरे भाई को एक टूटे हुए फिल्टर कैंडल की चॉक बनाकर घर के आंगन पर अंग्रेजी के छब्बीस अक्षर सिखा दिए थे. खाना खिलाते समय ध्रुव, प्रह्लाद और श्रवण कुमार की कहानियां सुनाया करती थी. पर मेरे समय में यह संभव नही हो पाया था. उस समय मेरी माँ की नौकरी में खूब सारा टेंशन था.इतना टेंशन, इतना टेंशन, कि बीच-बीच में नौकरी छोड़ देने की बात वह करती थी. नौकरी पर पहुँचने में अगर जरा-सी देर हो जाती, या वहां से जरा जल्दी घर निकल आती, तो उसे हजारों बातें सुननी पड़ती थी .इसलिए मेरी तरफ वह अपना ध्यान नही दे पा रही थी. मेरी माँ कहती थी, " चूँकि तेरी नीवं कमजोर है, इसलिए जितने भी तुझे कोई पढाये, कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है, पढाई में हमेशा कमजोर ही रहोगी".
अपनी ऑंखें बंद करके मुझे खूब पिटते समय, मैं उनसे यही बात दोहरा देती थी," पहले तो अच्छे ढंग से पढाई नही हो, अभी तडातड क्यों पीट रही हो? अब पीटने से क्या फ़ायदा? " तब उन्हें मिर्च लग जाती थी और गुस्से में बोलने लगती थी, " अधिकतर माँ-बाप अपने बच्चों को नहीं पढाते हैं. क्या हमारे माँ बाप ने अपना काम छोड़कर हमें पढाया था? अरे , मेरे पिताजी को तो यह भी पता नहीं था कि मैं कौन सी कक्षा में पढ़ती थी? उनको तो इस बात का भी पता नहीं रहता था कि मेरे स्कूल का नाम पद्मालया है या अपराजिता. स्कूल में नाम लिखवाने के लिए चाचाजी को मेरे साथ भेज दिए थे.चाचाजी को मेरे जन्म साल के बारे में भी पता नहीं था. मेरा नाम यशोदा लिखवा दिए थे और अंदाज से ही मेरा जन्म साल बता दिए थे. इसलिए आज-तक मैं अपनी सही उम्र से एक साल बड़ी होकर रह गयी हूँ. उस ज़माने में भी हम लोगों ने पढाई की, और पढ़ लिख कर इंसान बने. क्यों तुम्हारी कक्षा की अन्नपूर्णा के पिताजी तो मामूली ड्राईवर है. क्या अन्नपूर्णा के पिताजी उसे पढाते हैं ? देखो, इतना होने पर भी वह अपनी कक्षा में प्रथम स्थान पर आती है.वैजयंतीमाला के पिताजी तो केवल दरवान है, फिर भी वह कितना अच्छा पढ़ती है! कोई भी अगर पढना चाहेगी, तो जरुर अच्छा पढेगी.
दोस्तों के नाम याद दिलाते ही मुझे अपने अन्य दोस्तों की याद आने लगी. अन्नपूर्णा ,वैजयंतीमाला,प्रेमलता,रूपकुमारी. मेरी कक्षा में हीरालाल,जगन्नाथ, प्रशांत,मनोरंजन,बाबूलाल जैसे नाम वाले लड़के भी पढ़ते थे. इसलिए मेरा भाई मुझ पर व्यंग करता हुआ कहता था, " तू एक गरीब स्कूल में पढ़ती है. जा, तुझे कुछ भी नहीं मालूम." इस बात पर मेरी माँ ने भाई को डांटा था. "स्कूल में अमीर-गरीब कुछ भी नहीं होता है. इसलिए तुम सभी स्कूल में एक ही युनिफॉर्म पहनते हो."
बड़े स्कूल में प्रवेश पाने के लिए मैंने जिद्द भी की थी. " तुम्हारे दोस्तों के पिताजी कोई बड़े घर के नहीं है," कहकर मेरा भाई मुझे चिढाता था, इसलिए भाई के स्कूल में दाखिला दिलाने के लिए मैं बार-बार बोलती थी. परन्तु मेरी माँ कहती थी," कैसे दाखिला पायोगी ? तू तो अच्छा पढ़ती नहीं है."
मेरा और मेरा भाई का नाम शहर के सबसे अच्छे स्कूल में लिखवाया गया था. साक्षात्कार के बाद मेरा भाई को तुंरत ही स्कूल में दाखिला मिल गया था. जबकि मेरा नाम लिखवाने के लिए माँ को प्रिंसिपल से बात करनी पड़ी थी . स्कूल में कई साल पढने के बाद, मेरा भाई और भी बढिया स्कूल में दाखिला पा गया. जबकि मैं आ गयी शहर के सबसे घटिया स्कूल में. क्योंकि पुराने स्कूल में, मैं बिल्कुल पढाई नहीं कर पा रही थी. शुरू शुरू में, 'माँ की बेटी हूँ', इसलिए कक्षा अध्यापिका मुझे पहली कतार में बिठाया करती थी.लेकिन मैं अपने आप को पहली कतार का योग्य बना नहीं पाई. मुझे तो लिखने की बिल्कुल इच्छा ही नहीं होती थी. मैं तो ठीक से कक्षा में सुनती भी नहीं थी. घर आने के बाद, मेरी माँ, मेरे दोस्तों से कॉपी मांग कर लाती थी. और मुझे होम वर्क करवाती थी. धीरे-धीरे, मैं पढाई में और फिस्सडी होती गयी. ठीक उसी तरह, जैसे की अब मैं धीरे-धीरे नाले के दलदल में धंसती जा रही हूँ.
पोलोमी,अर्पिता, और अंकिता ने मुझ पर व्यंग के बाण छोडे और मुझसे दोस्ती तोड़ ली. इम्तिहान में एक दो विषय को छोड़कर बाकी विषयों में, मैं फेल हो गयी थी. प्रिंसिपल ने माँ को स्कूल बुलाकर अपमानित किया था. क्या पढाई करना ही जीवन की सबसे बड़ी चीज है? माँ कहती थी ," हाँ,पढाई बहुत ही बड़ी चीज है.जिसने अपने जीवन में पढाई नहीं की , उसका जीवन अंधकारमय है." हमारी नौकरानी किरण ने तो कभी पढाई नहीं की. फिर भी वह तो खुश रहती है. मेरी तरह उसको 'distance ' और 'disturbance' की स्पेलिंग याद नहीं रखनी पड़ती थी. मुझे क्या होता था? पता नहीं,पहला अक्षर अगर 'डी' से शुरू होता है, तो मैं डूरेशन को डोनेशन पढ़ लेती थी. इसी तरह supersitition को separation पढ़ती थी. constitution और constituent में फर्क समझ नहीं पाती थी. किताबों को देख कर मैं थक सी जाती थी. ऐसा लगता था जैसे बहुत ही लम्बा रास्ता तय करना बाकी है.एक पैराग्राफ से ज्यादा पढने की बिल्कुल इच्छा नही होती थी.
मुझे पढाने के लिए जितने भी टूशन मास्टर आए थे, सभी का स्वभाव अलग-अलग था. एक बेरोजगार इंजिनियर भी मुझे पढाने आये थे. उनके पास बहुत सारे टूशन होने की वजह से वह एक घंटे से एक मिनट भी ज्यादा नहीं पढाते थे. जैसे घर में पढाने आते थे, मुझसे एक मोटी-कॉपी मांगते थे. हमारी कक्षा में जिस दिन, जो जो पढाया जाता था, दूसरे लड़कों से पूछ कर आते थे, और उन्हीं i विषयों से सम्बंधित सारे प्रश्न व उनके उत्तर उस मोटी-कॉपी में लिख देते थे. उनके प्रश्न व उनके उत्तर लिखते समय, मैं खाली बैठी रहती थी लिखने के बाद, उन सब को रट लेने के लिए कहकर चले जाते थे. जबकि यह उनको बहुत ही अच्छी तरह मालूम था कि रटने वाला काम मुझसे नहीं होता था. यूनिट टेस्ट आते ही, वह सवाल पूछने लगते थे, और मैं बिल्कुल ही उत्तर नहीं दे पाती थी. वह मुझे सजा के तौर पर मुर्गा बना देते थे,या फिर अंगुलिओं के पोरों के बीच में पेंसिल डालकर जोर से दबा देते थे, या फिर जोर-जोर से पीटने लगते थे. यही नहीं, कभी-कभी तो अपने बाएं हाथ की अंगुलिओं के बड़े-बड़े नाखूनों से कभी मेरी नाक तो कभी मेरे कान के ऊपर इतना जोरसे चिकुटी काटते कि खून निकल जाता था. उनके सामने तो मैं रो भी नहीं पाती थी, केवल दांत भींचकर दर्द सह जाती थी. रसोई- घर में व्यस्त होने के कारण, मेरी माँ को इन सब चीजों के बारे में पता नहीं चलता था. बाद में जब उनको पता चलता था, वह बहुत दुखी हो जाती थी, तथा जख्मों पर मरहम लगाती थी. फिर मुझसे कहती थी,वह उस मास्टर को मना कर देगी. लेकिन अगले ही दिन, वह उसी मास्टर से हंस हंस कर बोलती थी,"सर, आज से बच्ची पर हाथ नही उठाएंगे."
ऐसे ही चलते-चलते एक दिन माँ ने कहा," इस मास्टर को रखने से बेहतर होगा एक गाइड बुक खरीद लेना. वह विषय के बारे में तो कुछ जानता ही नहीं," आखिरकार मेरा टूशन मास्टर बदल दिया गया और फिर मेरी माँ ने सब काम छोड़कर पढाना शुरू किया . नियमित रूप से वह मुझे पढाती थी. उसके बावजूद भी जब मैं मिस को देखती थी, मुझे डर लगता था. और उन्हें अपनी कॉपी नहीं दिखा पाती थी.
महीनों महीनों से कॉपी में लाल स्याही के कोई निशान नहीं पड़ते थे. शर्म से मेरी माँ स्कूल भी नहीं गयी थी. उन्हें इस बात का डर था की कहीं कोई अध्यापिका उन्हें कोई उल्टी-सीधी बात न कह दे. कभी-कभी तो वह अपने भाग्य को कोसकर रो देती थी. रोते-रोते कहने लगती थी ," तेरे पैदा होने के समय, डॉक्टर कहते थे कि, न तो माँ बचेगी, और न ही बच्ची.लेकिन देख, तू भी जिन्दा है और मैं भी जिन्दा हूँ.और कितना दुःख पाएगी तू ? कितनी मार खायेगी तू?देख, तुम्हारे बारे में सोच-सोच कर मैं भी कितना दुखी हो जाती हूँ." तब मैं माँ की आंसुओं को पोंछ देती थी और मैं कहती थी, "और मत रोइए, इस बार मैं जरुर अच्छा पढूंगी.
उसके बावजूद भी, फाइनल परीक्षा के रिपोर्ट कार्ड को फेंक दिया था प्रिंसिपल साहेब ने , और बोले थे," अपने पेरेंट को बुलाओ." बाद में माँ को रिपोर्ट कार्ड दिखा कर बोले थे, देखिये क्या इसको इतने कम मार्क्स पर प्रमोट किया जा सकता है? केवल बच्चे को स्कूल में दाखिला करा देने से नहीं होता है,वरन उसे घर में भी पढाना पड़ता है. क्या ऐसी छात्रा को मुझे स्कूल में रखना चाहिए?"
पता नहीं क्यों, माँ कुछ भी नहीं बोल रही थी. यह वही स्कूल है, जिसकी दूसरी कक्षा में उसका बेटा प्रथम आया है.उसने तो अपनी तरफ से कोई भी चूक बाकी नहीं रखी थी. वह पता नहीं क्यों, सिर झुका-कर खड़ी थी माँ. उनके मुहँ पर तो ऐसे ताला लग गया हो मानो एक शब्द भी मुहँ से नहीं निकल रहा हो. वह तो ऐसे निस्तब्ध खड़ी थी, मानो छू लेने मात्र से वह रो पड़ेगी. उनके धीरज को देखकर मैं आश्चर्य-चकित हो गयी थी. प्रिंसिपल ने मेरी माँ को, एक छात्रा समझ कर खूब डांटा, खूब गाली-गलौज की और वहां से चले गए. मेरा मन तो हो रहा था की उनकी कुर्सी पलट देती.
घर लौटते समय भी माँ रास्ते भर कुछ भी नहीं बोली थी. आते समय भी वह चुप थी. आराम करते समय इतना जरुर बोली थी, " माँ,तू क्यों आई है इस संसार में ? अगर ऐसे आना ही था तो , पैसे वालों के घर क्यों पैदा नहीं हुई?" मैं कुछ भी नहीं बोली थी. क्या बोलना चाहिए था ,यह बात तो मुझे पता भी नहीं थी.
पुनः मेरा स्कूल बदल गया. इस स्कूल का कोर्स सरल था.इसलिए मुझे इस स्कूल में भर्ती कराया गया. वास्तव में कोर्स बहुत ही हल्का था. दूसरे स्कूलों की पहली कक्षा की अंग्रेजी इस स्कूल के पांचवीं कक्षा में पढाई जाती थी. लेकिन फिर भी, मुझसे नहीं होता था. मुझे तो पढना-लिखना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता था. मेरा भाई excursion में मुंबई, चेन्नई जाता था अपनी स्कूल की तरफ से. विज्ञानं प्रदर्शनी में भाग भी लेता था. पर्वोतारोहण के लिए पहाडी जगह पर भी जाता था. लेकिन हमारे स्कूल में हमें कभी पिकनिक भी नहीं ले जाया जाता था. हमारे अध्यापकगण हमेशा प्रिंसिपल के विरोध में बोलते थे.और प्रिंसिपल भी बदला लेने के लिए शिक्षक व शिक्षिकाओं को नौकरी से निकाल देते थे. साल में लगभग दो-तीन 'सर और मैडम' बदल ही जाते थे. यहाँ हीरालाल हमारे स्कूल के कुएं में पेशाब कर देता था. बाबुराम छत के ऊपर से गिर कर अपने पैर तोड़ देता था. अन्नपूर्णा के बालों में जुएँ होती थीं. और मेरी माँ जब तरह तरह के डिजाईन वाली पोशाकें पहनती थी, तो अन्नपूर्णा उन पर छींटाकशी करती थी. मैं ऐसी स्कूल में पढना बिल्कुल भी नहीं चाहती थी. यहाँ के बच्चों को मैं ठीक तरह से जानती थी. इसीलिए कलम को अपने साथ नहीं लाती थी.प्रेमलता को दिखाने के लिए ही लाना पड़ा था.
कहाँ गयी सोनाली? अपने घर चली गयी क्या? पूल के ऊपर साइकिल सवार कोई अंकल चले गए थे. मैंने तो आवाज भी दी थी, " अंकल,अंकल" लेकिन शायद उनको सुने नहीं पड़ी. मैं अब तक अपनी जांघों तक धंस चुकी थी. क्या करुँगी मैं अब ? क्या सचमुच इस दलदल में दबकर मर जाउंगी?
सोनाली अच्छी लड़की नहीं है. मुझे बहुत रोना आ गया था.मेरी माँ दरवाजे के पास खड़ी हो कर मेरे लौटने का इन्तेजार कर रही होगी. उनको तो यह भी पता नहीं होगा कि मैं दलदल में धंस गयी हूँ.गाली देते समय तो प्रायः बोल देती थी ," जा , तू मर जा." लेकिन अगर मैं मर गयी तो वह बहुत रोएगी. अभी तो रोएगी, मगर मुझसे हमेशा-हमेशा के लिए उन्हें छुटकारा मिल जायेगा . हर दिन उनको मेरे लिए और रोना नहीं पड़ेगा.
तो क्या मैं सचमुच मर जाउंगी? नहीं, मैं नहीं मरूंगी. क्योंकि एक ज्योतिषी ने मेरे बारे में भविष्य-वाणी की थी, कि मुझसे पढाई तो नहीं होगी, पर मेरा भाग्य प्रबल है., " इस लड़की कि कुंडली में प्राण-घातक अग्निभय का योग है." उस दिन माँ बहुत रोई थी. कहने लगी थी,," मुझे मालूम है, इसको ससुराल वाले जलाकर मार देंगे.. तू क्यों नहीं समझती हो बेटी? आजकल इस ज़माने में तो , अच्छी अच्छी लड़किओं को दहेज़ के लिए ससुराल वाले जला दे रहे हैं. तुम तो अच्छी पढ़ी-लिखी नहीं हो. तुम को इतना लाड-प्यार से बड़ा किया, तुमको फिर कोई जलाकर मार देगा." बोलकर रो पड़ी थी माँ.
इसलिए दलदल में डूबकर मैं नहीं मरूंगी. कोई न कोई आकर मुझे बचा लेगा. जरुर मैं बच जाउंगी. अगर मैं अभी मर जाउंगी, तो आग में जल कर कैसे मरूंगी? नहीं, मैं अभी नहीं मरूंगी. सिर तक अगर डूब भी जाऊँ, तो लोग मुझे चोटी पकड़ के खींचकर बाहर निकाल लेंगे. लेकिन सोनाली को तो लौट आना चाहिए था. कोई पूल के ऊपर से जा रहा था, मैंने उसका इंतजार किया. कुछ देर बाद, एक गाय वहां से चली गयी. कोई तो आयेगा. रात होने से पहले जरुर आयेगा. माँ का मन तो व्याकुल हो रहा होगा.वह खोजने किसी को जरुर भेजेगी. स्कूल का ताला खोल कर मुझे ढूंढा जायेगा. लेकिन पूल के नीचे आकर कोई देखेगा , पता नहीं ? नहीं, नहीं. वह लोग जरुर देखेंगे, क्योंकि दलदल में दबकर नहीं, बल्कि मुझे तो आग में ही जलकर मरना है.
यह कहानी का शीर्षक ओडिया के मध्य युगीय संत कवि भीमा भोई की चर्चित कविता से ली गयी है. कविता का हिंदी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत करने में मैं एक अद्भुत गौरव अनुभव कर रहा हूँ :
जग में केवल दुःख अपरिमित
देख सहन कौन कीजै
मेरा जीवन भले नर्क में रहे
जगत उद्धार होवे. )
दुःख अपरिमित
अगर सोनाली ने उस दिन मेरे हाथ से वह कलम नहीं छीनी होती ,तो वह कभी भी नीचे नहीं गिरी होती . उस कलम को स्कूल साथ ले जाने के लिए मेरी माँ ने मुझे कई बार मना किया था. पर कलम थी ही उतनी सुंदर , आकर्षक व उतनी ही अजीबो-गरीब किस्म की, कि मुझे अपने आप ही उसे अपने दोस्तों को दिखलाने कि इच्छा हो जाती थी. मैं हर दिन उस कलम के साथ थोडा बहुत खेलती थी. फिर खेलने के बाद उसे अलमीरा में छुपा कर रख देती थी. वह एक विदेशी कलम थी, जिसे मेरी आंटी ने मुझे उपहार में दिया था. माँ कहती थी, " बहुत ही कीमती है यह कलम. सम्हाल कर रखना ".लिखते समय कलम से रोशनी निकलती थी.
इस कलम के शीर्ष-भाग में लगी हुई थी एक छोटी सी घडी. एक बार, मैं इस कलम को प्रेमलता को दिखाने के लिए, अपने साथ स्कूल लेकर गयी थी. क्योंकि प्रेमलता को मैं जब भी उस कलम के बारे में जितना भी बताती थी , वह सोचती थी कि मैं झूठ बोल रही थी .वह कहती थी कि ऐसी तो कोई भी कलम इस दुनिया में नहीं है.. इसी कारण से मैं प्रेमलता को दिखाने के लिए अपने साथ उसे स्कूल लेकर गयी थी . स्कूल के मैदान के एक कोने में , अकेले में मैंने उसे वह कलम दिखाई थी . रिसेस में , मैं तो खेलने भी नहीं गयी, इसी शंका से कि कहीं वह कलम चोरी न हो जाये. दिखाते समय, प्रेमलता ने कसम भी खायी थी कि वह किसी को भी उस कलम के बारे में नहीं बताएगी. मगर उसके पेट में यह बात कब तक छुपती! उसने आखिरकार सोनाली को इस कलम के बारे में बता ही दिया . जैसा ही स्कूल की छुट्टी हुई , वैसे ही सोनाली ने मुझसे वह कलम देखने के लिए मांगी. पहले तो मैंने उसे देने के लिए मना ही कर दिया था.और सोच रही थी कि कितनी ही जल्दी स्कूल बस आ जाये और कितनी ही जल्दी वह अपने घर चली जाये. परन्तु उस दिन स्कूल बस को स्कूल में पहुँचने में काफी देर हो गयी थी. अक्सरतया माँ कहा करती थी कि कभी भी स्कूल से पैदल चल कर घर मत आना. क्योंकि स्कूल से घर वाले रास्ते के बीच में एक दारू की भट्टी पड़ती थी. बदमाश लोग दारू पीकर उस रास्ते में घूमते रहते थे. रास्ता भी था तो पूरी तरह से वीरान , एकदम सुनसान. अगर कोई किसी को उस रास्ते में से उठा भी ले, तो भी पता नहीं चलेगा. उससे भी बड़ी दिक्कत की बात थी, नाले के ऊपर बनी हुए लकडी के टूटे-फूटे पुल की. वह नाला कभी भी किसी के काम नहीं आता था, और वह पुल कभी भी गिर सकता था. तरह तरह के जंगली लताओं, पेड़-पौधों, कीचड़ व दलदल से बुरी तरह से भरा हुआ था वह नाला. मेरी माँ के कई बार मना करने के बावजूद भी, मैं कभी-कभी अपने दोस्तों के साथ, स्कूल से घर पैदल चली आती थी, क्योंकि स्कूल बस जहाँ तहाँ घूमते-घूमते, हर छोटे-मोटे स्टॉपेज पर रुकते-रुकते,बच्चों को उतारते-चढाते , घर पहुँचने में एक घंटा देर कर देती थी. प्रायः शाम हो जाती थी घर पहुँचते-पहुँचते. लेकिन मुझे मेरी माँ की बात मान लेना चाहिए था. मैंने पैदल आकर कोई अच्छा काम नहीं किया था. सोनाली ने मेरे हाथ से उस कलम को छीनने की कोशिश की. उसी समय वह कलम नाले में जाकर गिर गयी. कलम का उपरी भाग दूर से दिखाई दे रहा था. अगर उस कलम का उपरी हिस्सा दिखाई नहीं देता तो क्या होता? मैं केवल रोते-रोते ही घर पहुँचती, परन्तु इस दलदल में तो इस तरह से नहीं फंस जाती! उस कलम को लेने के लिए, सोनाली और मैं, दोनों ही नाले की तरफ चले गए थे तथा एक छोटी लकडी की सहायता से उसे बाहर निकलने की कोशिश करने लगे थे. सामने दिखाई दे रही कलम को ऐसे ही छोड़कर घर जाने की कतई इच्छा नहीं हो रही थी. जैसे ही मैंने नाले की तरफ अपना एक कदम बढाया, वैसे ही मेरा एक पांव दलदल में धंस गया. इसके बाद फिर जब मैंने अपना दूसरा कदम आगे की तरफ बढाया, तो दूसरा पांव भी उस दलदल में धँस गया. अब मैं उस दलदल में पूरी तरह से फँस चुकी थी. जितनी भी बाहर निकलने की चेष्टा करती, उतनी ही अधिक मैं और उस दलदल में धंसती ही जाती. देखते-देखते धीरे-धीरे कर मेरे दोनों पांव उस दलदल में एक बित्ता गहराई तक डूब चुके थे. मैं असहाय हो कर सोनाली की तरफ देखने लगी थी. सोनाली बोली , "थोडासा और आगे बढ़ जा , जाकर उस कलम को पकड़ ले." मेरे पांव तो दलदल में इस तरह फँस चुके थे मानो कि पांव के तलवों में किसीने गोंद चिपका दिया हो. "मुझे खींच कर बाहर निकालो." कहकर मैंने सोनाली की तरफ सहायता के लिए अपने हाथ फैला दिए थे. मगेर वह तो डरकर दो कदम और पीछे चली गयी,सोचने लगी की कहीं मदद करने से ऐसा न हो जाये कि वह खुद भी दलदल में डूब जाये. और वह बोलने लगी थी ," रुक,रुक, मैं जा कर किसी और को बुला लती हूँ." ऐसा कहकर वह पुल के ऊपर चली गयी थी, इसके बाद वह वहां पर दिखाई ही नहीं पड़ी.और मैं खड़ी थी, उस अमरी पेड़-पौधों से लदालद भरे उस जंगल में, जो कि उस नाले में चारों तरफ फैला हुआ था. मेरे साथ तो कभी कुछ ठीक से घटता ही नहीं है. यह अभी की बात नहीं है, मेरे जन्म के पहले से ही ऐसा होता आया है. मेरी माँ कहती थी, मैं अनचाहे, असमय में उसकी गर्भ में आयी थी. वह तो मुझे चाहती ही नहीं थी. जिस दिन से उसको पता चला कि मैं उसके गर्भ में आ गयी हूँ, उस सारे दिन तो वह दुखी मन से उदास हो कर बैठी रही. बस इतना ही समझिये, उसने अपने कोख में नहीं मार डाला था यह सोच कर कि कहीं पाप न हो जाये. मेरे जन्म से पूर्व एक ज्योतिषी ने मेरी माँ की हस्त-रेखा देख कर कहा था,"आपकी कोख से एक कन्या का जन्म होगा, जो कि जन्म से ही रोगी होगी." उसी मुहूर्त से मेरी माँ का मन बहुत ही दुखी हो गया था. अक्सरतया ज्योतिषियों का फल झूठा निकलता है, सोच कर धीरे-धीरे इस बात को वह भूल गयी थी. मगर मेरे बारे में ज्योतिषी की बात सही निकली. मेरे जन्म के समय एक विचित्र घटना घटित हुई.पेट के भीतर रह कर मैंने 'बच्चेदानी' को फाड़ दिया था. भयंकर दर्द से, मेरी माँ जमीन पर गिर कर छटपटा रही थी. मेरी माँ को तुंरत हॉस्पिटल ले जाया गया.डॉक्टरों ने कहा था की अगर थोडी सी देर हो जाती, तो मैं और मेरी माँ हमेशा हमेशा के लिए इस दुनिया से विदा हो जाते.जब हम दोनों अस्पताल में थे, तब हमारे घर में चोर भी घुस आया था.मेरी माँ अस्पताल में बिस्तर पर लेटे लेटे ही बोल रही थी की यह लड़की उनके लिए शुभ नहीं है. जैसे ही जन्म हुआ है, वैसे ही चोर घर में घुस आया.यह तो अलग बात है की वह चोर बुद्धू था, जो ड्रेसिंग टेबल के ऊपर रखे हुए असली सोने के झूमके को भूल से नकली मान कर छोड़ दिया था. और साथ लेकर गया था तो पूजा स्थल पर रखे हुए केवल पंद्रह रुपये.
पैदा होते ही अस्पताल में मैंने गहरे काले रंग की उलटी की थी. उसे देख कर मेरी माँ तो बुरी तरह से डर गयी थी.पाईप घुसा कर ,मेरे पेट में से जितना मैला चला गया था, डॉक्टरों ने सब बाहर निकाल दिया था. पेट के अन्दर पाईप घुसाने से मेरे शरीर में जीवाणुओं का संक्रमण हो गया था, और जिसकी वजह से मुझे पतले दस्त लगना शुरू हो गए थे. उस धरती पर आये हुए केवल दो ही दिन का समय गुजरा था कि मुझे जिन्दा रहने के लिए सालाइन की जरुरत पड़ी थी. उसके बाद तो कहना ही क्या,लगातार कुछ न कुछ छोटे- मोटे रोग घेरे रहते थे.
मैं तो माँ के स्तन-पान भी करना नहीं चाहती थी.माँ जितनी भी चेष्टा करती,पर मैं तो ठहरी जिद्दी, बिल्कुल भी उनके स्तनों पर अपना मुहं नहीं लगाती थी.केवल पाउडर दूध से भरी बोतल पीकर में सो जाती थी. यह सब बातें मुझे इसलिए याद आती हैं, कि हमें स्कूल में गत परीक्षा में 'ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ ए डस्टबिन' पर एक निबंध लिखने को दिया गया था. डस्टबिन क्या है यह तो मैं जानती थी, मगर ऑटोबायोग्राफी क्या है, यह मैं नहीं जानती थी.बड़ी ही मुश्किल से, मैं केवल चार
वाक्य ही लिख पाई थी.
मैंने डस्टबिन में कभी भी किसीको कचरा फेंकते हुए नहीं देखा था, इसीलिए मैं सिर्फ इतना ही लिख पाई थी कि , 'डस्टबिन कहता है - यूज मी यूज मी , बट नोबॉडी यूज इट'. मेरी माँ इस पंक्ति को सुनकर बहुत खुश हो गयी थी.फिर भी वह कहती थी कि मैंने गलती की है. ऑटोबायोग्राफी का मतलब होता है 'आत्मकथा' अर्थात अपने आपको डस्टबिन मानकर लिखना उचित था.
"बहुत ही कठिन निबंध दिया था न, माँ?"
माँ बोली थी ," कैसे कठिन ! बचपन में हमने तो बूढे बैल की आत्मकथा लिखी थी, किसान की आत्मकथा लिखी थी."
"मुझे मेरी आत्मकथा लिखने को देते तो अच्छा होता."
माँ हंस दी थी.बोलने लगी,"कितनी जिंदगी तुम पार कर चुकी हो, जो अपनी आत्मकथा के बारे में कहती हो?"
यह सुनकर मैं चुपचाप वहांसे उठकर चल दी थी.
अभी तक सोनाली किसी को बुलाकर नहीं लौटी थी. मैं दलदल में ज्यों की त्यों खड़ी थी. मुझे मच्छर काट रहे थे. मैं दलदल में अपने घुटनों तक.धंस चुकी थी. जैसे ही मैं थोडा सा हिलती, ऐसे ही मैं और नीचे की तरफ दब जाती थी. यहाँ तक कि, डर के मारे, मैं दोनों हाथों से मच्छरों को भी नहीं मार पा रही थी.
मुझे पता नहीं,मेरा नाम तितली क्यों रखा गया था? पलक झपकते ही मैं तितली की तरह एक फूल से दूसरे फूल पर उड़कर नहीं जा पाती थी. मैं तो तितली की तरह चंचल भी नहीं थी. इसलिए हमेशा घरवालों से ताना सुनना पड़ता था.सब कोई मुझे गाली देते थे. कोई मुझे आलसी कह कर गाली देता था, तो कोई मुझे गधी कह कर. जब मैं पैदा हुई थी, बोतल का दूध खत्म होते होते मैं सो जाती थी. फिर खाने के समय जग जाती थी. जब कोई मुझे हिला हिला कर झिंझोड़ता था , तब जा कर उठती थी. वरन मैं तो ऐसे ही पड़ी रहती थी.
अस्पताल में किसीने मेरा रोना नहीं सुना था.मैं दूसरे बच्चों की तरह हाथ पैर हिला हिला कर नहीं रोती थी. इसीलिए मेरी मौसी सजे-सजाये पद्य की तरह कभी राधी तो कभी गधी के नाम से बुलाती थी. अभी तक मुझे इसी नाम से बुलाती है.मेरा बड़ा भाई मुझे 'कुम्भकर्ण की बहन' कह कर पुकारता था. मुझे सोना अच्छा लगता है, बहुत अच्छा.किन्तु मेरे इस तरह सोने की प्रवृत्ति, किसी को भी अच्छी नहीं लगती थी.यहाँ तक कि मैं टीवी देखते देखते सो जाती थी, पढाई करते करते झपकी लेने लगती थी. इसलिए मुझे काफी डांट-फटकार और मार पड़ती थी. मेरी माँ डांटती थी, " यह नींद तेरा शत्रु है. इसलिए तेरी बुद्धि का विकास नहीं होता है." मेरे मस्तिष्क के सभी कपाट बंद करके रखी थी यह नींद. इसी कारण से पढाई में, मैं थोडा पीछे रहती थी. आजतक जिन्होंने मुझे पढाया है, वे कुछ ही दिनों के बाद चिढ कर मुझे गालियां देते थे, यहाँ तक कि कोई न कोई मेरे ऊपर हाथ भी उठा लेते थे.
कभी कभी मुझे ऐसा लगता था कि मैं सिर्फ गालियां और मार खाने के लिए ही पैदा हुई हूँ. मार और किसी चीज के लिए नहीं , सिर्फ पढाई के लिए. मैं काफी कुछ चीजें याद रखती हूँ, लेकिन पढाई नहीं. मेरी पढाई को लेकर माँ और पिताजी के बीच बराबर झगडा होता था. माँ पढ़ने के समय जब गुस्सा होकर मुझे मारती थी, तब पापा उनको गाली देते थे और पापा पढ़ते समय जब गुस्सा होकर मुझ पर हाथ उठाते थे, तो माँ बचाने आती थी.जब पापा मुझे गणित पढाते थे, और मुझे अगर कोई पहाडा याद नहीं रहता, तो गुस्से से आग बबूला होकर मेरे गले को अपने हाथों से दबोच लेते थे. कभी कभी तो नौ का पहाडा भी याद नहीं आता था. बार बार पापा पूछते थे," नौ सत्ता? नौ सत्ता? बोलो , जल्दी बोलो, नहीं तो मार डालूँगा." माँ रसोई घर से दौड़ कर आ जाती थी,"बोल दे बेटी, बोल दे, नौ सत्ता तरसठ." माँ की इस तरह मदद कर देने से, पापा का पारा असमान छूने लगता था और माँ से कहते थे ," तुम्हारे कारण ही यह आज तक मूर्ख है. थोडा सा भी धैर्य नहीं है तुझमे. इसके बाद मेरी पीठ पर धडाधड मुक्कों की बरसात करना शुरू कर देते थे तथा बोलने लगते थे, " अभी तक नौ का पहाडा याद नहीं है तो आगे क्या पढाई करेगी ?" तुम तो हम सभी के लिए एक अभिशाप बनकर पैदा हुई हो."
" अपनी बच्ची के लिए ऐसा बोलते हुए, तुम्हे जरा-सी भी शर्म नहीं आयी?" रसोई घर के भीतर से ही माँ कहने लगती थी.मेरे लिए उन दोनों के बीच में अक्सरतया झगडा शुरू हो जाता था.इस कारण से मुझे अपने आप पर खूब गुस्सा आता था. माँ और पापा के झगडे में हार हमेशा माँ की होती थी. पापा अपनी बड़ी बड़ी ऑंखें दिखा कर चिल्लाते थे. माँ रोती थी. तब मुझे माँ को अपने गले लगाने का मन होता था.पता नहीं क्यों, स्कूल कि किताबों कि बातें याद नहीं रख पाती थी, लेकिन मुझे ऐसे बहुत सारी दूसरी बातें याद रहती थी. बचपन में 'एम' नहीं लिख पाती थी, तब मेरी माँ ने मुझे उठा कर जमीन पर पटक दी थी. कुछ देर तक आँखों के सामने सब कुछ अँधेरा ही अँधेरा दिखाई देने लगा था. इतना होने के बाद भी मेरे मस्तिष्क कि खिड़कियाँ नहीं खुली थी. बचपन में , मेरे बहुत सारे ट्यूशन मास्टर बदले गए थे. जो भी नया ट्यूशन मास्टर आता था , माँ उसको ड्राइंग रूम में बिठा कर चाय पिलाती थी और फिर मेरे बारे में इस तरह बताना शुरू कर देती थी, मानो जैसे कोई रोगी डॉक्टर से अपने रोग के बारे में बता रहा हो. " इस लड़की की सबसे बड़ी बीमारी है की उसे अपनी पढाई बिलकुल भी याद नहीं रहती है. बचपन में जब कभी भी उसे तेज बुखार आता था तो मूर्च्छा आने लगती थी. इसलिए उसे नींद की दवाई दी जाती थी. शायद यही कारण है की उसका स्वभाव दूसरो से थोडा मंद है. यह बात दूसरी है कि , पांच साल की उम्र के बाद और ऐसा उसे कुछ भी नहीं हुआ. उसकी गणित विषय पर ठीक पकड़ है, परन्तु रटने- वटने का काम उससे नहीं होता है. आईक्यू के मामले में थोडा पीछे है. मैं तो अपनी कोशिश कर कर के थक गयी हूँ.अब अगर आप कुछ सुधार ला सकते हैं तो...."
आए हुए मास्टर कहने लगते थे," उसको अगर गणित पर पकड़ ठीक है, तो बाकी सब विषय तो आसानी से हो जायेंगे. पढ़ने-पढाने के भी अपने अपने तौर-तरीके हैं. बस अब आप चिंता छोड़ दीजिये.
उस समय मैं अपने आपको एक भयंकर रोगी की तरह अनुभव करने लगती थी,. जिस प्रकार से मेरे नानाजी की तबियत ख़राब होने पर उन्हें एक डॉक्टर से दूसरे डॉक्टर के पास , एक दवाई खाने से दूसरे दवाई खाने पर, फिर वहां से और आगे एक नर्सिंग होम में ले जाया जाता था, ठीक उसी प्रकार से मेरी भी हालत थी. नानाजी को तो कुछ ऐसा हो गया था कि उनके ब्रेन के बहुत सारे हिस्सों में खून का परिसंचरण रुक गया था. घर में सभी कह रहे थे कि उन्हें तो स्ट्रोक हुआ है.क्या मेरे भी ब्रेन में बहुत सारे जगह सुख कर रेगिस्तान बन गया है? अच्छा ,सारे रेगिस्तान तो अफ्रीका में है? एक कालाहारी तो दूसरा सहारा. कौन सा दक्षिण में है, कौन सा उत्तर में ? हर बार मैं इस बात को भूल जाती हूँ. इसीलिए स्कूल में मुझे डंडे की मार भी खानी पड़ती थी.
मेरे स्कूल में मेरे से भी पढाई में कई कमजोर छात्र हैं, लेकिन महापात्र मैडम तो मुझे ही सबसे ज्यादा पीटती हैं, गालियाँ देती हैं. स्कूल में कोई भी मुझे लायक नहीं समझते हैं. कोई भी मुझे प्यार नहीं करते हैं. .नानाजी के दवाई-खाने से नर्सिंग होम ले जाने तक, कई जगह पर स्थानांतरण होने जैसे ही मेरा भी बहुत सारी स्कूलों में स्थानांतरण हुआ है.सबसे पहलेवाली स्कूल का तो बस मुझे इतना ही याद है कि एक मोटी-सी टीचर मुझे हाथ पकड़ कर लिखना सिखाती थी, एक पन्ने के बाद दूसरे पन्ने पर. उसके हाथ छोड़ देने से मैं बिल्कुल ही नहीं लिख पाती थी. इस पर खिसियाकर वह जोर से चिल्लाकर बोलती थी, " आज मैं तुमको उस आम के पेड़ पर लटका दूंगी, जहाँ तुम्हे लाल मुहं वाले बन्दर काटेंगे." सचमुच उस आम के पेड़ पर बन्दर रहते थे और बंदरों के देखने से मेरी घिग्घी बंध जाती थी. बन्दर के दांत दिखाने से, मैं डर के मारे अपनी आँखें बंद कर लेती थी.
कभी कभी मेरी माँ दुखी मन से कहने लगती थी ," यह सब मेरी ही गलती है कि मैंने अपनी नौकरी की खातिर तुझे ढाई साल की उम्र में स्कूल में दाखिला दिलवायी ." पर जब-तब मैं उन्हें अपनी गलती का अहसास कराती और पूछती ," आपने क्यों मुझे ढाई साल की उम्र में ही स्कूल में डालने की बात सोची?"
तब वह गुस्से से लाल पीली हो जाती थी, " और मैं क्या करती? तुमको अकेली नौकरानी के भरोसे छोड़कर जाती? कभी-कभी जब मैं घर लौटती थी, तब तुम अपनी चड्डी में हग-मूत कर ऐसे ही पड़ी रहती थी. ऐसा न हो,यही सोच कर तुमको स्कूल में डाल दिया था. स्कूल में और दस बच्चों के साथ खेलोगी, तो माँ की याद नहीं आयेगी. मगर उस मिस ने तुम्हारा भविष्य बर्बाद कर दिया. मैंने उसे तुम्हे पढाने के लिए मना किया था. उसे तो केवल इतना ही ध्यान रखना था कि तुम ठीक से नियमित रूप से स्कूल जा रही हो या नहीं"
मेरी समझ में नहीं आ रहा था की मेरी माँ मेरे साथ अच्छा की था या बुरा. मैं तो अपने भाई की तरह झटपट जवाब भी नहीं दे पाती थी. और तो और, माँ पर दो मिनट से ज्यादा गुस्सा भी नही कर पाती थी. मेरी माँ बताती थी कि उसने मेरे भाई को एक टूटे हुए फिल्टर कैंडल की चॉक बनाकर घर के आंगन पर अंग्रेजी के छब्बीस अक्षर सिखा दिए थे. खाना खिलाते समय ध्रुव, प्रह्लाद और श्रवण कुमार की कहानियां सुनाया करती थी. पर मेरे समय में यह संभव नही हो पाया था. उस समय मेरी माँ की नौकरी में खूब सारा टेंशन था.इतना टेंशन, इतना टेंशन, कि बीच-बीच में नौकरी छोड़ देने की बात वह करती थी. नौकरी पर पहुँचने में अगर जरा-सी देर हो जाती, या वहां से जरा जल्दी घर निकल आती, तो उसे हजारों बातें सुननी पड़ती थी .इसलिए मेरी तरफ वह अपना ध्यान नही दे पा रही थी. मेरी माँ कहती थी, " चूँकि तेरी नीवं कमजोर है, इसलिए जितने भी तुझे कोई पढाये, कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है, पढाई में हमेशा कमजोर ही रहोगी".
अपनी ऑंखें बंद करके मुझे खूब पिटते समय, मैं उनसे यही बात दोहरा देती थी," पहले तो अच्छे ढंग से पढाई नही हो, अभी तडातड क्यों पीट रही हो? अब पीटने से क्या फ़ायदा? " तब उन्हें मिर्च लग जाती थी और गुस्से में बोलने लगती थी, " अधिकतर माँ-बाप अपने बच्चों को नहीं पढाते हैं. क्या हमारे माँ बाप ने अपना काम छोड़कर हमें पढाया था? अरे , मेरे पिताजी को तो यह भी पता नहीं था कि मैं कौन सी कक्षा में पढ़ती थी? उनको तो इस बात का भी पता नहीं रहता था कि मेरे स्कूल का नाम पद्मालया है या अपराजिता. स्कूल में नाम लिखवाने के लिए चाचाजी को मेरे साथ भेज दिए थे.चाचाजी को मेरे जन्म साल के बारे में भी पता नहीं था. मेरा नाम यशोदा लिखवा दिए थे और अंदाज से ही मेरा जन्म साल बता दिए थे. इसलिए आज-तक मैं अपनी सही उम्र से एक साल बड़ी होकर रह गयी हूँ. उस ज़माने में भी हम लोगों ने पढाई की, और पढ़ लिख कर इंसान बने. क्यों तुम्हारी कक्षा की अन्नपूर्णा के पिताजी तो मामूली ड्राईवर है. क्या अन्नपूर्णा के पिताजी उसे पढाते हैं ? देखो, इतना होने पर भी वह अपनी कक्षा में प्रथम स्थान पर आती है.वैजयंतीमाला के पिताजी तो केवल दरवान है, फिर भी वह कितना अच्छा पढ़ती है! कोई भी अगर पढना चाहेगी, तो जरुर अच्छा पढेगी.
दोस्तों के नाम याद दिलाते ही मुझे अपने अन्य दोस्तों की याद आने लगी. अन्नपूर्णा ,वैजयंतीमाला,प्रेमलता,रूपकुमारी. मेरी कक्षा में हीरालाल,जगन्नाथ, प्रशांत,मनोरंजन,बाबूलाल जैसे नाम वाले लड़के भी पढ़ते थे. इसलिए मेरा भाई मुझ पर व्यंग करता हुआ कहता था, " तू एक गरीब स्कूल में पढ़ती है. जा, तुझे कुछ भी नहीं मालूम." इस बात पर मेरी माँ ने भाई को डांटा था. "स्कूल में अमीर-गरीब कुछ भी नहीं होता है. इसलिए तुम सभी स्कूल में एक ही युनिफॉर्म पहनते हो."
बड़े स्कूल में प्रवेश पाने के लिए मैंने जिद्द भी की थी. " तुम्हारे दोस्तों के पिताजी कोई बड़े घर के नहीं है," कहकर मेरा भाई मुझे चिढाता था, इसलिए भाई के स्कूल में दाखिला दिलाने के लिए मैं बार-बार बोलती थी. परन्तु मेरी माँ कहती थी," कैसे दाखिला पायोगी ? तू तो अच्छा पढ़ती नहीं है."
मेरा और मेरा भाई का नाम शहर के सबसे अच्छे स्कूल में लिखवाया गया था. साक्षात्कार के बाद मेरा भाई को तुंरत ही स्कूल में दाखिला मिल गया था. जबकि मेरा नाम लिखवाने के लिए माँ को प्रिंसिपल से बात करनी पड़ी थी . स्कूल में कई साल पढने के बाद, मेरा भाई और भी बढिया स्कूल में दाखिला पा गया. जबकि मैं आ गयी शहर के सबसे घटिया स्कूल में. क्योंकि पुराने स्कूल में, मैं बिल्कुल पढाई नहीं कर पा रही थी. शुरू शुरू में, 'माँ की बेटी हूँ', इसलिए कक्षा अध्यापिका मुझे पहली कतार में बिठाया करती थी.लेकिन मैं अपने आप को पहली कतार का योग्य बना नहीं पाई. मुझे तो लिखने की बिल्कुल इच्छा ही नहीं होती थी. मैं तो ठीक से कक्षा में सुनती भी नहीं थी. घर आने के बाद, मेरी माँ, मेरे दोस्तों से कॉपी मांग कर लाती थी. और मुझे होम वर्क करवाती थी. धीरे-धीरे, मैं पढाई में और फिस्सडी होती गयी. ठीक उसी तरह, जैसे की अब मैं धीरे-धीरे नाले के दलदल में धंसती जा रही हूँ.
पोलोमी,अर्पिता, और अंकिता ने मुझ पर व्यंग के बाण छोडे और मुझसे दोस्ती तोड़ ली. इम्तिहान में एक दो विषय को छोड़कर बाकी विषयों में, मैं फेल हो गयी थी. प्रिंसिपल ने माँ को स्कूल बुलाकर अपमानित किया था. क्या पढाई करना ही जीवन की सबसे बड़ी चीज है? माँ कहती थी ," हाँ,पढाई बहुत ही बड़ी चीज है.जिसने अपने जीवन में पढाई नहीं की , उसका जीवन अंधकारमय है." हमारी नौकरानी किरण ने तो कभी पढाई नहीं की. फिर भी वह तो खुश रहती है. मेरी तरह उसको 'distance ' और 'disturbance' की स्पेलिंग याद नहीं रखनी पड़ती थी. मुझे क्या होता था? पता नहीं,पहला अक्षर अगर 'डी' से शुरू होता है, तो मैं डूरेशन को डोनेशन पढ़ लेती थी. इसी तरह supersitition को separation पढ़ती थी. constitution और constituent में फर्क समझ नहीं पाती थी. किताबों को देख कर मैं थक सी जाती थी. ऐसा लगता था जैसे बहुत ही लम्बा रास्ता तय करना बाकी है.एक पैराग्राफ से ज्यादा पढने की बिल्कुल इच्छा नही होती थी.
मुझे पढाने के लिए जितने भी टूशन मास्टर आए थे, सभी का स्वभाव अलग-अलग था. एक बेरोजगार इंजिनियर भी मुझे पढाने आये थे. उनके पास बहुत सारे टूशन होने की वजह से वह एक घंटे से एक मिनट भी ज्यादा नहीं पढाते थे. जैसे घर में पढाने आते थे, मुझसे एक मोटी-कॉपी मांगते थे. हमारी कक्षा में जिस दिन, जो जो पढाया जाता था, दूसरे लड़कों से पूछ कर आते थे, और उन्हीं i विषयों से सम्बंधित सारे प्रश्न व उनके उत्तर उस मोटी-कॉपी में लिख देते थे. उनके प्रश्न व उनके उत्तर लिखते समय, मैं खाली बैठी रहती थी लिखने के बाद, उन सब को रट लेने के लिए कहकर चले जाते थे. जबकि यह उनको बहुत ही अच्छी तरह मालूम था कि रटने वाला काम मुझसे नहीं होता था. यूनिट टेस्ट आते ही, वह सवाल पूछने लगते थे, और मैं बिल्कुल ही उत्तर नहीं दे पाती थी. वह मुझे सजा के तौर पर मुर्गा बना देते थे,या फिर अंगुलिओं के पोरों के बीच में पेंसिल डालकर जोर से दबा देते थे, या फिर जोर-जोर से पीटने लगते थे. यही नहीं, कभी-कभी तो अपने बाएं हाथ की अंगुलिओं के बड़े-बड़े नाखूनों से कभी मेरी नाक तो कभी मेरे कान के ऊपर इतना जोरसे चिकुटी काटते कि खून निकल जाता था. उनके सामने तो मैं रो भी नहीं पाती थी, केवल दांत भींचकर दर्द सह जाती थी. रसोई- घर में व्यस्त होने के कारण, मेरी माँ को इन सब चीजों के बारे में पता नहीं चलता था. बाद में जब उनको पता चलता था, वह बहुत दुखी हो जाती थी, तथा जख्मों पर मरहम लगाती थी. फिर मुझसे कहती थी,वह उस मास्टर को मना कर देगी. लेकिन अगले ही दिन, वह उसी मास्टर से हंस हंस कर बोलती थी,"सर, आज से बच्ची पर हाथ नही उठाएंगे."
ऐसे ही चलते-चलते एक दिन माँ ने कहा," इस मास्टर को रखने से बेहतर होगा एक गाइड बुक खरीद लेना. वह विषय के बारे में तो कुछ जानता ही नहीं," आखिरकार मेरा टूशन मास्टर बदल दिया गया और फिर मेरी माँ ने सब काम छोड़कर पढाना शुरू किया . नियमित रूप से वह मुझे पढाती थी. उसके बावजूद भी जब मैं मिस को देखती थी, मुझे डर लगता था. और उन्हें अपनी कॉपी नहीं दिखा पाती थी.
महीनों महीनों से कॉपी में लाल स्याही के कोई निशान नहीं पड़ते थे. शर्म से मेरी माँ स्कूल भी नहीं गयी थी. उन्हें इस बात का डर था की कहीं कोई अध्यापिका उन्हें कोई उल्टी-सीधी बात न कह दे. कभी-कभी तो वह अपने भाग्य को कोसकर रो देती थी. रोते-रोते कहने लगती थी ," तेरे पैदा होने के समय, डॉक्टर कहते थे कि, न तो माँ बचेगी, और न ही बच्ची.लेकिन देख, तू भी जिन्दा है और मैं भी जिन्दा हूँ.और कितना दुःख पाएगी तू ? कितनी मार खायेगी तू?देख, तुम्हारे बारे में सोच-सोच कर मैं भी कितना दुखी हो जाती हूँ." तब मैं माँ की आंसुओं को पोंछ देती थी और मैं कहती थी, "और मत रोइए, इस बार मैं जरुर अच्छा पढूंगी.
उसके बावजूद भी, फाइनल परीक्षा के रिपोर्ट कार्ड को फेंक दिया था प्रिंसिपल साहेब ने , और बोले थे," अपने पेरेंट को बुलाओ." बाद में माँ को रिपोर्ट कार्ड दिखा कर बोले थे, देखिये क्या इसको इतने कम मार्क्स पर प्रमोट किया जा सकता है? केवल बच्चे को स्कूल में दाखिला करा देने से नहीं होता है,वरन उसे घर में भी पढाना पड़ता है. क्या ऐसी छात्रा को मुझे स्कूल में रखना चाहिए?"
पता नहीं क्यों, माँ कुछ भी नहीं बोल रही थी. यह वही स्कूल है, जिसकी दूसरी कक्षा में उसका बेटा प्रथम आया है.उसने तो अपनी तरफ से कोई भी चूक बाकी नहीं रखी थी. वह पता नहीं क्यों, सिर झुका-कर खड़ी थी माँ. उनके मुहँ पर तो ऐसे ताला लग गया हो मानो एक शब्द भी मुहँ से नहीं निकल रहा हो. वह तो ऐसे निस्तब्ध खड़ी थी, मानो छू लेने मात्र से वह रो पड़ेगी. उनके धीरज को देखकर मैं आश्चर्य-चकित हो गयी थी. प्रिंसिपल ने मेरी माँ को, एक छात्रा समझ कर खूब डांटा, खूब गाली-गलौज की और वहां से चले गए. मेरा मन तो हो रहा था की उनकी कुर्सी पलट देती.
घर लौटते समय भी माँ रास्ते भर कुछ भी नहीं बोली थी. आते समय भी वह चुप थी. आराम करते समय इतना जरुर बोली थी, " माँ,तू क्यों आई है इस संसार में ? अगर ऐसे आना ही था तो , पैसे वालों के घर क्यों पैदा नहीं हुई?" मैं कुछ भी नहीं बोली थी. क्या बोलना चाहिए था ,यह बात तो मुझे पता भी नहीं थी.
पुनः मेरा स्कूल बदल गया. इस स्कूल का कोर्स सरल था.इसलिए मुझे इस स्कूल में भर्ती कराया गया. वास्तव में कोर्स बहुत ही हल्का था. दूसरे स्कूलों की पहली कक्षा की अंग्रेजी इस स्कूल के पांचवीं कक्षा में पढाई जाती थी. लेकिन फिर भी, मुझसे नहीं होता था. मुझे तो पढना-लिखना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता था. मेरा भाई excursion में मुंबई, चेन्नई जाता था अपनी स्कूल की तरफ से. विज्ञानं प्रदर्शनी में भाग भी लेता था. पर्वोतारोहण के लिए पहाडी जगह पर भी जाता था. लेकिन हमारे स्कूल में हमें कभी पिकनिक भी नहीं ले जाया जाता था. हमारे अध्यापकगण हमेशा प्रिंसिपल के विरोध में बोलते थे.और प्रिंसिपल भी बदला लेने के लिए शिक्षक व शिक्षिकाओं को नौकरी से निकाल देते थे. साल में लगभग दो-तीन 'सर और मैडम' बदल ही जाते थे. यहाँ हीरालाल हमारे स्कूल के कुएं में पेशाब कर देता था. बाबुराम छत के ऊपर से गिर कर अपने पैर तोड़ देता था. अन्नपूर्णा के बालों में जुएँ होती थीं. और मेरी माँ जब तरह तरह के डिजाईन वाली पोशाकें पहनती थी, तो अन्नपूर्णा उन पर छींटाकशी करती थी. मैं ऐसी स्कूल में पढना बिल्कुल भी नहीं चाहती थी. यहाँ के बच्चों को मैं ठीक तरह से जानती थी. इसीलिए कलम को अपने साथ नहीं लाती थी.प्रेमलता को दिखाने के लिए ही लाना पड़ा था.
कहाँ गयी सोनाली? अपने घर चली गयी क्या? पूल के ऊपर साइकिल सवार कोई अंकल चले गए थे. मैंने तो आवाज भी दी थी, " अंकल,अंकल" लेकिन शायद उनको सुने नहीं पड़ी. मैं अब तक अपनी जांघों तक धंस चुकी थी. क्या करुँगी मैं अब ? क्या सचमुच इस दलदल में दबकर मर जाउंगी?
सोनाली अच्छी लड़की नहीं है. मुझे बहुत रोना आ गया था.मेरी माँ दरवाजे के पास खड़ी हो कर मेरे लौटने का इन्तेजार कर रही होगी. उनको तो यह भी पता नहीं होगा कि मैं दलदल में धंस गयी हूँ.गाली देते समय तो प्रायः बोल देती थी ," जा , तू मर जा." लेकिन अगर मैं मर गयी तो वह बहुत रोएगी. अभी तो रोएगी, मगर मुझसे हमेशा-हमेशा के लिए उन्हें छुटकारा मिल जायेगा . हर दिन उनको मेरे लिए और रोना नहीं पड़ेगा.
तो क्या मैं सचमुच मर जाउंगी? नहीं, मैं नहीं मरूंगी. क्योंकि एक ज्योतिषी ने मेरे बारे में भविष्य-वाणी की थी, कि मुझसे पढाई तो नहीं होगी, पर मेरा भाग्य प्रबल है., " इस लड़की कि कुंडली में प्राण-घातक अग्निभय का योग है." उस दिन माँ बहुत रोई थी. कहने लगी थी,," मुझे मालूम है, इसको ससुराल वाले जलाकर मार देंगे.. तू क्यों नहीं समझती हो बेटी? आजकल इस ज़माने में तो , अच्छी अच्छी लड़किओं को दहेज़ के लिए ससुराल वाले जला दे रहे हैं. तुम तो अच्छी पढ़ी-लिखी नहीं हो. तुम को इतना लाड-प्यार से बड़ा किया, तुमको फिर कोई जलाकर मार देगा." बोलकर रो पड़ी थी माँ.
इसलिए दलदल में डूबकर मैं नहीं मरूंगी. कोई न कोई आकर मुझे बचा लेगा. जरुर मैं बच जाउंगी. अगर मैं अभी मर जाउंगी, तो आग में जल कर कैसे मरूंगी? नहीं, मैं अभी नहीं मरूंगी. सिर तक अगर डूब भी जाऊँ, तो लोग मुझे चोटी पकड़ के खींचकर बाहर निकाल लेंगे. लेकिन सोनाली को तो लौट आना चाहिए था. कोई पूल के ऊपर से जा रहा था, मैंने उसका इंतजार किया. कुछ देर बाद, एक गाय वहां से चली गयी. कोई तो आयेगा. रात होने से पहले जरुर आयेगा. माँ का मन तो व्याकुल हो रहा होगा.वह खोजने किसी को जरुर भेजेगी. स्कूल का ताला खोल कर मुझे ढूंढा जायेगा. लेकिन पूल के नीचे आकर कोई देखेगा , पता नहीं ? नहीं, नहीं. वह लोग जरुर देखेंगे, क्योंकि दलदल में दबकर नहीं, बल्कि मुझे तो आग में ही जलकर मरना है.
बढिया कहानी प्रेषित की है।आभार।
ReplyDeleteThis is really excellent one. You have made wonderful use of blogging. Hats off. Congratulation.
ReplyDeleteस्वागत है इस ब्लॉग का. नियमित रहें. शुभकामनाऐं.
ReplyDeleteAap dwara Bharat ki Kshetriya Bhasha ki Seva ek mahatwapurna yogadan hai.
ReplyDeleteMay GOD bless you
Bimal Khemani
Great work......!
ReplyDeleteaap Jaisay log he Bharat koa ek sutra main peroa saktay hain.
aap ka
Naveen Tewari
thanks for a beautiful story
ReplyDeleteअत्यंत प्रभावशाली कहानी. आँखों से आंसू रोक पाना मुश्किल था. बेहद सार्थक और भोगा हुआ यथार्थ की कहानी.
ReplyDeleteदिनेश मालीजी को धन्यवाद, सरोजिनी जी को शत कोटि प्रणाम
सरोजिनी की काहानी आत्मा को छू लेती है. दिनेशजी का अनुवाद कहीं यह अहसास होने नहीं देता है कि हम अनुवादित कहानी पढ़ रहे हैं. सार्थक प्रयास, हिंदी में इस किस्म का ब्लॉग शायद यह एक ही है.
ReplyDeleteबधाई स्वीकार करें
thanks for such a novel effort
ReplyDeleteI went through the DUKH APARIMIT of Mr.Mali. It is really a nice endeavour to present Oriya literature in Hindi to be close to the Hindi speaking people as well as Hindi readers. I am in touch with the writings of Sarojini in English also
ReplyDeleteI have gone through the web page having the Hindi versions of Sarojini Sahoo's fiction. I liked it.
ReplyDeleteसरोजिनी साहू जी की रचनात्मक ज्वलंत का अनुवाद हमारे लिए एक सराह्निये कदम है
ReplyDeleteदिनेश माली जी इसके लिए बधाई के पात्र हैं
Mali Saab,
ReplyDeleteAnuwaad main ise nahin maanta. Yeh apane aap mein ek anoothi sahitya rachna hai. Badhaai.
Dr Sharma
"दुख अपरिमित " पढ़ी। अनुवाद अच्छा है। कहानी का अंत जिजीविषा का ज्वलंत उदाहरण है।
ReplyDeleteGood crafting
ReplyDeleteI read your hindi blog it's nice and true story of today's society.
ReplyDeleteBheekha Ram Bishnoi,AGM,JSW,Barmer
Yes, it is different.
ReplyDeleteCongratulations to Dr. Sarojini Sahoo for winning such a recognition in Hindi, our national language! Congratulations to Dinesh Mali for honouring a great genius in Oriya and English!
ReplyDeleteK.V. Dominic,Editor,Indian Journal of Postcolonial Literatures, Thodupuzha, Kerala, India.
BAHUT HI UTTAM PRASTUTIKARN HAI. MALI JEE SUNDAR CHAYAN PAR BADHEE.
ReplyDeletewww.rashtrapremi.com
dhanywad
ReplyDeleteKAHANI PADH KAR APNI BEETE HUE JEEVAN MAIN GHATI HUI GHATNAE YAAD AANE LAGI. DIL KO CHU DENE WALE AISI KAHANIYON K LIYE AUR HINDI MAIN ANUWAD K LIYE AAPKO KOTI-KOTI DHANYWAD. HAMARI SUBHKAMNA HAI KI AAP AAGE BADTE RAHE
ReplyDeleteइस कहानी को पढ़कर ऐसा लगा कि हमारे जीवन में भी ऐसी ही कुछ घटनाएँ घटी है . कहानी हृदय को छू गयी . उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के बाद यह पहली कहानी है जो बाल मन की व्यथा को प्रकट करता है. इस कहानी का हिंदी में सजीव रूपांतरण करने के लिए दिनेश कुमार माली को बहुत बहुत धन्यवाद जिन्होंने इतनी अच्छी कहानी हिंदी जगत में हमारे समक्ष प्रस्तुत किया .
ReplyDeleteदेवेन्द्र कुमार त्रिवेदी ,पोखरा ,जिला :- सिवान ,बिहार
मैं बड़े ही असमंजस की स्तिथि में हूँ कि इस प्रभावशाली रचना को अनुवादित मानू या एक मौलिक रचना . कहानी सत्य के इतने करीब है कि मूल लेखिका श्रीमती सरोजिनी साहू के जीवन कि आप बीती प्रतीत होती है . उस पर श्री दिनेश कुमार माली ने जो पैनी धार प्रदान की है कि कहानी और वेगवती हो चली है .हिंदी और ओडिया ,दोनों बहिनों में संवाद और प्रगाढ़ हो ,इसी आशा के साथ ,
ReplyDeleteअशोक कुमार ,शिवपुरी ,पटना -23
यह बहुत ही मार्मिक कहानी है .दिल को छूने के साथ-साथ समाज को सन्देश देती है की अभिभावाको को बच्चो के कोमल मन की भावनाओं को समझना चाहिए. इस कहानी का मूल मंत्र यही है.
ReplyDeleteलेखिका तथा अनुवादक श्री दिनेशजी को बहुत बहुत धन्यवाद .
हरीश छाबरा ,LIC एजेंट ,ब्रजराजनगर ,उड़ीसा
Dineshji,
ReplyDeleteThe translation is excellent.There is beautiful description of the feeling of the girl.We wish success of the blog.
Ramanlal Mali
Sirohi.
कहानी पठने पर कहीं यह पता नहीं चलता है कि पाठक कोई अनुवादित कहानी पठ रहा हो .कहानी का भाषा -प्रवाह बहुत ही अच्छा है. लड़की कि व्यथा -कथा दिल को द्रवित कर देती है .क्षेत्रीय -भाषा से हिंदी में अनुवाद -प्रस्तुतिकरण कर श्री दिनेश कुमार माली ने हिंदी जगत में एक उच्च -कोटि कि मिशाल कायम की है. जिसके लिए उन्हें बहुत बहुत धन्यवाद . ऐसी कहानिया आती रहे ,इसी आशा के साथ .....
ReplyDeleteतारकेश्वर मिश्र ,महगांव पूरा ,वाराणसी ,221208
कहानी बहुत अच्छी लगी .ओडिया से हिंदी में अनुवाद अति सरल शब्दों में प्रभावशाली ठंग से किया गया है,अनुवादकर्ता को तहे दिल से धन्यवाद .में अपने जीवन में पहली बार ऐसी रचना पठी है. पठाई में कमजोर बच्चों के मन में यह बात घर करा देना कि वह कमजोर है तथा पठाई -लिखाई उसके के बस की नहीं है ; मनोवैज्ञानिक ठंग से बच्चे के हानिकारक है .आखिरकार सोनाली ने अपने दोस्त को धोखा दिया ,जो आज के समाज की आम बात है. लेखिका को प्रणाम
ReplyDeleteखुशबू,रुकनपुरा ,पटना-14
Dear DK,
ReplyDeletei have no words to say your work so excellent.it is feelings which can we adopt in our real life and make life lovely.UR effort is very realistic.
mukesh gupta , jaipur , Rajasthan
इस कहानी को पढ़ने से इतने तीव्र दुःख की अनुभिती हुई कि मन कर रहा था कि कितना जल्दी जाकर उस लड़की की मदद करूँ ,उसे दल-दल से बाहर निकालूँ . बहुत ही अच्छा अनुवाद हुआ है , कही भी भाषा में स्पीड ब्रकेर जैसा ब्रेक नहीं लग रहा है . भाषा एक्सप्रेस गाड़ी की तरह जा रही है . बधाई हो
ReplyDeleteविनय कुमार यादव ,गोरखपुर उत्तर प्रदेश
I was highly impressed by reading of this story that had shown the feelings of a girl,when she was sruck into daldal while she went to take out the pen from it.
ReplyDeleteas the girl was gradually sinking into the daldal ,she started to think about herself ,how her parent specially her mother was thinking about her.The girl in the story was very dull in her study and inspite of sincere effort of her mother ,she was unable to improve .The girl was very upset over the behaviour of her principal and teachers towards her mother and she felt it was all due to her weakness in study .she felt guilty but was helpless. The story also showed also the desire of mother to build the career of her children . Even she gave her all effort i.e changing of schools ,tution masters so that her daughter may improve and stand on own legs .I know Dr sarojini and her faimily since last 20 years . The greatness of the writer couple is that they believe in simple living and high thinking .
Regards
Gopal Panda,Main Road ,Brajrajnagar
Dear Sir,
ReplyDeleteI have gone through this story ,which effected me a lot.The main reason is that the theme of the story is same which happened in my life . Only difference is that main character in story is a little girl ,but I have a young son . I also transfered him from sainik school ,bhubaneshwar to sundergarh Government college .My son had also made my life miserable Bit by bit every word put alive cinema before me. Translation is very nice .
congratulations !!
बहुत ही अच्छी इमोसनल तथा जिवित कहानी है ।
ReplyDeleteकहानी आत्मा को छूली, बहुत अच्छी लगी । ड़.सरोजिनी साहु
(मूल रचना) तथा श्री दिनेश कुमार माली (अनुवादकर्ता)को
बहुत बहुत धन्यवाद ।
प्रदीप
ब्रजराजनगर
excellent !!
ReplyDeleteA perfect expression of feelings.
क्या कहानी है। पहली बार सरोजिनी साहू को पढ़ा। इतनी अच्छी कहानी- बहुत ही effective.
ReplyDeleteडॉ सरोजिनी साहू की कहानी अत्यंत ही मार्मिक एवं दिल को छू लेने वाली लगी . एक छोटी बच्ची की मानसिकता इतना सुन्दर एवं सजीव प्रस्तुतीकरण की लेखिका के महान साहित्यकार होने का आभाष दिलाता है .इस सुन्दर रचना का हिंदी में अनुवाद करके श्री दिनेश कुमार माली ने न सिर्फ सराहनीय कार्य किया है वरन उड़िया जैसी क्षेत्रीय भाषा में भी उच्च कोटि का साहित्य होने की जानकारी हिंदी भाषियों को प्रदान कर एक महान कार्य किया है एवं इसके लिए वे बधाई केर पात्र है .
ReplyDeleteश्याम सुंदर खंडेलवाल ,पत्रकार ,ब्रजराजनगर ,उड़ीसा
FEMINISM
ReplyDeleteBY DR. RAM SHARMA, MEERUT, INDIA
You thought me a spark,
because! i am a woman,
only carry on lightning,
for everyone
but i am a torch,
which will burn,
Respected Mali Saab,
ReplyDeleteYour Hindi translated version of two Oriya short stories “Bedi” and “Dukh Aparimit” by eminent Oriya short-story writer and novelist Respected Sarojini Sahu is excellent. My hearty congratulations to you. Although I have read the original version of “Dukha Apramita” earlier, I experienced the same charming and eagerness, while reading your Hindi version, as if reading for the first time.This is the majic of Sarojini Madam’s story. I am also a great fan of her husband, a trend-setter in oriya short-story and one of the distinguished short-story writer and novelist of the present times, Respected Jagadish Mohanty.
The heart touch feelings and flow of your stories are as like in original version. Your excellence in using pure, appropriate and strong Hindi vocabularies in your stories is mind-blowing.
Congrats for making a great and accomplished literature like Oriya,world-wide. In the days to come, I hope, more and more great works by oriya writers,be translated to Hindi by you.
Best regards,
Kshirod Kuanr
B-22, MRS Colony
Brajrajnagar-768216
Jharsuguda (Orissa) INDIA.
E-mail:- kshirodkuanr@rediffmail.com
yah kahani aaj ke pariwarik samaj per satik battata hai hindi me anuwad ke liye sadhuwad.----D.k.TRIVEDI
ReplyDeletenice
ReplyDeleteBahut Maarmik Gaatha Hai !
ReplyDeleteuttam chitran hai Dinesh ji.
ReplyDeletedeep frusration of mind has got expression in the story.really the life frustrates it gives screams in the place of love songs.it turns often the leaves into spine as a cactus in desert.but the cactus of life struggles for survival and looses its tender leaves of emotion into the horrific shape of spines.after all the story is showing is allpervading phenomenon of human life.
ReplyDeleteVERY NICE.
ReplyDeleteशुभकामनाऐं.
ReplyDeleteशुभकामनाऐं.
ReplyDeletedear dinesh ji ek writer hi aurat k dil ka haal bakhoobi panno par utaar sakta hai is kahaani me b aurat k dil ki vyatha ko bahut ache shabdo me darshaya hai jis se har koi aasaani se pad sakta hai
ReplyDeleteaapne toh prem chand ki kami pure kar de
ReplyDelete